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युगवीर-निवन्धावली नियमोके अक्षुण्ण रहनेकी जो बात कही है वह तो ठीक है, परन्तु उन व्रत-नियमोमे यज्ञोपवीतकी गणना नही है उनमे मधुमासादिके त्यागरूप वे ही व्रत परिगृहीत हैं जो गृहस्थ-श्रावकोके ( अष्ट ) मूलगुण कहलाते हैं, जैसा कि जिनसेनके हो निम्न वाक्योसे प्रकट है -
यावद्विद्या समाप्तिः स्यात्तावदस्यदृशं व्रतम् । ततोऽप्यूर्ध्व व्रतं तत्स्याद्यन्मूलं गृहमधिनाम् ।। ११८ ॥ मधुमांस-परित्यागः पञ्चोदुम्वर-वर्जनम् । हिंसादि-विरतिश्चास्य व्रतं स्यात्सार्वकालिकम् ॥ १२३॥
ऐसी हालतमे लेखकमहोदयने उन सार्वकालिक व्रतोमे यज्ञोपवीतकी कैसे और किस आधारपर गणना कर ली वह कुछ समझमे नही आता || दूसरोकी मान्यताको भ्रमपूर्ण बतलानेमे तो कोई प्रबल आधार होना चाहिये, ऐसे कल्पित आधारोसे तो काम नही चल सकता।
इस तरह जिनसेनके जिन वाक्योको लेखमे आगम-प्रमाणरूपसे उद्धृत किया गया है वे विचारकी दूसरी दृष्टिसे भी अग्राह्य है,
और इसलिये उनसे लेखककी इष्ट-सिद्धि अथवा उनके प्रतिपाद्य विषयका समर्थन नही होता। त्रिलोकप्रज्ञप्तिका प्रमाण भी प्रकृत-विषयके समर्थनमे असमर्थ है। उन्हे तो इसके लिये ऐसे प्रमाणोको उपस्थित करना चाहिये था जिनका यज्ञोपवीतसस्कारके साथ सीधा स्पष्ट सम्बन्ध हो और जो भगवज्जिनसेनसे पूर्वके साहित्यमे पाये जाते हो। ___ विपक्षकी ओरसे यह कहा जाता है कि उक्त जिनसेनसे पहलेके बने हुए 'पद्मपुराण'मे श्रीरविषणाचार्यने ब्राह्मणोको 'सूत्रकण्ठा'-गलेमे तागा डालनेवाले-जैसे उपहासास्पद या हीनता-द्योतक ( हिकारतके ) शब्दोमे उल्लेखित किया है । (यदि