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गलती और गलतफहमी
३८९ इस गाथाको सुनाकर यह आशय बतलाया गया था कि 'जो सुखाया हुआ, अग्निमे पकाया हुआ, तपाया हुआ, खटाई-नमक मिलाया हुआ अथवा यत्रसे छिन्न-भिन्न किया हुआ वनस्पति द्रव्य है वह सब प्रासुक (अचित्त) होता है ।' और फिर 'प्रासुकस्य भक्षणे नो पापः' -प्रासुकके खानेमे कोई पाप नही, यह कहकर बतलाया गया था कि तुम्हारी रसोईमे जो आलूका शाक तय्यार है वह यत्रसे छिन्न-भिन्न करके, खटाई-नमक मिलाकर और अग्निमे पकाकर तय्यार किया गया है-कच्चा तो नही ? तब उसके खानेमे क्या दोष ? ___अब मैं यहाँपर इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सचित्त-त्यागी पाँचवे दर्जे (प्रतिमा के श्रावकके लिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके निम्न पद्यमे यह विधान दिया है कि वह कन्द-मूल-फल-फूलादिक कच्चे नही खाता, जिसका यह स्पष्ट आशय है कि वह अग्निमे पके हुए अथवा अन्य प्रकारसे प्रासुक हुए कन्दमूलादिक खा सकता है और साथ ही यह निष्कर्प भी निकलता है कि पांचवें दर्जेसे पहलेके चार दर्जा (प्रतिमाओ ) वाले श्रावक कन्दमूलादिकको कच्चे अथवा अप्रासुक ( सचित्त ) रूपमे भी खा सकते हैं .
मूल-फल-शाक शाखा-करीर-कन्द-प्रसून-वीजानि । नाऽऽमानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ।।
आलूकी गणना कन्दोमे होनेसे, ऊपरके आचार्यप्रवर-वाक्यसे यह साफ जाना जाता है कि जैनधर्ममे आलूके भक्ष्याभक्ष्य-विषयम एकान्त नही, किन्तु अनेकान्त है-प्रथम चार दर्जीके श्रावकोके लिये वह नियमितरूपसे त्याज्य न होनेके कारण कच्ची, पक्की आदि सभी अवस्थाओमे भक्ष्य है । इन्द्रियसयमको लेकर स्वेच्छासे