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गल्ती और गलतफहमी
३९३ कायका ठीक विवेक नही रखते-प्राय रूढि-रिवाज अथवा रूढियोसे बना हुआ समाजका वातावरण ही उनका पथ-प्रदर्शन करता है। यह सब देखकर आजसे कोई २३ वर्ष पहले ता० २ अक्टूबर १९२० को, अपने ही सम्पादकत्वमे प्रकाशित होनेवाले 'जैन-हितैपी'के सयुक्ताङ्क न० १०-११ मे, मैने 'शास्त्रीयचर्चा' नामसे एक लेखमाला प्रारम्भ की थी, जिसमे इस विषयपर दो लेख लिखे थे-(१) क्या मुनि कन्द-मूल खा सकते हैं ? (२) क्या सभी कन्द-मूल अनन्तकाय होते हैं ? पहले लेखका अधिकाश विपय इस लेखमे आ गया है। दूसरे लेखमै गोम्मटसार और मूलाचार जैसे प्रामाणिक ग्रन्थो के आधारपर यह सिद्ध किया गया था कि
"सभी कन्द-मूल अनन्तकाय नहीं होते और न सर्वाङ्ग रूपसे ही अनन्तकाय होते हैं और न अपनी सारी अवस्थाओंमें अनन्तकाय रहते हैं। वल्कि वे प्रत्येक (एकजीवाश्रित) और अनन्तकाय (साधारण) दोनो प्रकारके होते है। किसीकी छाल ही अनन्तकाय होती है, भीतरका भाग नहीं और किसीका भीतरी भाग ही अनन्तकाय होता है तो छाल अनन्तकाय नहीं होती, कोई वाहर-भीतर सर्वाङ्ग रूपसे अनन्तकाय होता है
और कोई इससे विलकुल विपरीत कतई अनन्तकाय' नहीं होता, इसी तरह एक अवस्थामें जो प्रत्येक है वह दूसरी अवस्थामें अनन्तकाय हो जाता है और जो अनन्तकाय होता है वह प्रत्येक वन जाता है। प्रायः यही दशा दूसरी प्रकारकी वनस्पतियोंकी है। वे भी प्रत्येक और अनन्तकाय दोनों प्रकारकी होती है-आगममे उनके लिये भी उन दोनो भेदोंका विधान किया गया है, जैसा कि ऊपरके' (गोम्मटसारके) वाक्योंले ___१यहाँ गोम्मटसारके जिन वाक्योंकी ओर सकेत किया गया है वे इस प्रकार हैं :