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युगवीर-निवन्धावली
प्राय अपना रग जमानेके लिये दभको लिये हुए जान पड़ते हैंउन्हे सुनकर रावणका कानो पर हाथ रखना, सिर धुनना और चक्षुसकोच कर बोलना, ये सब प्राय दम्भके चिह्न मालूम होते हैं। वह क्षण-भरके लिये सदाचारी बना था। ऐसा भी "क्षणं बमव केकसीसूनुः सदाचार-परायणः" इन शब्दोसे ध्वनित होता है। यही वजह है कि जरा सी देरके बाद ही विभीषणसे सलाह करके और उसका यह परामर्श पाकर कि अभ्युपगमसे सन्तुष्ट हुई उपरम्भा मायामयी कोटको तोडनेका कोई उपाय बतला देगी, उसने उक्त दूतीसे कहा था कि जा, तू उसे शीघ्र ले आ-कही मद्गत-प्राण हुई वह बेचारी मर न जाय, और जब वह दूती उसे ले आई तब रतिके अवसरपर रावणने उससे कहा कि 'हे देवि । तुम्हारे दुर्लध्यनगरमे रमनेकी मेरी इच्छा है, इस अटवीमे क्या सुख धरा है तथा मदनानुकूल कौनसी सामग्री है ? ऐसा यत्न करो सिससे मैं तुम्हारे इस नगरमे चलकर तुम्हारे साथ भोग भोगूं ।' जैसा कि उसी ग्रथ और पर्वके निम्न वाक्योसे प्रकट है :
ततो मदनसंप्राप्तो सा तेनैवमभाष्यत । दुर्लध्यनगरे देवि रन्तुं मम परा स्पृहा ॥१३४॥ अटव्यामिह किं सौख्यं किं वा मदन कारणं॥
तथा कुरु यथैतास्मिन् त्वया सह पुरे रमे ॥ १३५ ॥ ऐसी हालतमे उपरम्भाकी कथापरसे लेखकजीके अनुकूल कोई भी नतीजा नही निकाला जासकता और न यही मालूम होता है कि रावण उस समय परस्त्री-सेवनका त्यागी था । अत. लेखकजीकी यह आपत्ति भी बिल्कुल ही निर्जीव जान पडती है ।
(४) "रावण परस्त्री-सेवनके अतिरिक्त हिंसादिक