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अनोखा तर्क और अजीव साहस
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वह वास्तवमे जारसे पैदा हुआ या असली पतिसे । ऐसे लोगोपर लेखकजी यज्ञोपवीत भी धारण न करने और प्रतिमाको न छूनेका अपना रूलिंग कैसे लगायेंगे ? तब तो सदिग्धावस्थामे उन्हे अपने सभी साधर्मियोंके नाम पूजनादि न करनेका आर्डर जारी करना पडेगा और तब उनके पूजनादिककी कैसी व्यवस्था अथवा दशा होगी, इसे वे खुद समझ सकते हे ।
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रावणको व्यभिचारी न मानकर 'सदाचारी' बतलाना इस वातको सूचित करता है कि लेखकजी शास्त्राज्ञासे विमुख होकर परस्त्रीसेवनको व्यभिचार नही मानते - जो लोग रजामन्दीसे परस्त्रीसेवन करते हे वे सब आपकी दृष्टिमें सदाचारी हैं । इतने पर भी आश्चर्य है कि आप आगमानुकूल निर्णयकी दुहाई देते हैं। इस अजीव साहसका भी कोई ठिकाना है । आपका यह पूछना कि " पहले आगमानुकूल रावणको व्यभिचारी तो सिद्ध कीजिये" ऐसा ही है जैसा कि मात्र काकमासके त्यागी भीलके विपयमे कोई यह प्रश्न करे कि उसे पहले मासाहारी तो सिद्ध कीजिये । और यह लिखना तो और भी ज्यादा हास्यास्यद है कि एक उदाहरणके मिथ्या होनेपर दूसरे उदाहरण भी मिथ्या हो जायँगे - अर्थात् सुमुख राजाने वीरक सेठकी स्त्री वनमालाको जो सेठकी इच्छा विरुद्ध अपने घरमे डाल लिया था, वह शास्त्रसम्मत उदाहरण तक भी मिथ्या हो जायगा - इस प्रकारका आचरण भी व्यभिचार नही ठहरेगा | वाह । कैसी घरकी अदालत, सस्ता न्याय और निराला ढंग है || लेखक महाशयके इस अद्भुत् तर्कको देखकर बडी ही दया आती है । आशा है, वे भविष्य मे विचारपूर्वक लिखनेकी कृपा करेंगे ।
- जैनजगत, १० - ९ - १९३७