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युगवीर-निवन्धावली समझ सकते हैं। साथ ही, उनके पूर्वलेखपर इस विषयका जो नोट ( अनेकान्त पृ० २०७) मैने दिया था उसकी यथार्थताका भी अनुभव कर सकते हैं। और यह भी अनुभव कर सकते हैं कि उस नोटपर गहरा विचार करके उसकी यथार्थता आँकनेका अथवा दूसरी कोई खास बात निकालनेका वह परिश्रम शास्त्रीजीने नही उठाया है जिसकी उनसे आशा की जाती थी। अस्तु, अव शक-यवनादिके सकलसयमकी वातको लीजिये ।
(२) जव ऊपरके कथनसे यह स्पष्ट है कि शक-यवनादि देश आर्यखण्डके ही प्राचीन प्रदेश हैं, उनके निवासी शक-यवन-शबरपुलिन्दादिक लोग आर्यखण्डोद्भव म्लेच्छ है और वे सब आर्यखण्डमे कर्मभूमिका प्रारम्भ होनेके समयसे अथवा भरतचक्रवर्तीकी दिग्विजयके पूर्वसे ही यहाँ पाये जाते हैं तब इस बातको बतलाने अथवा सिद्ध करनेकी जरूरत नही रहती कि शक-यवनादिक म्लेच्छ उन लोगोकी ही सन्तान हैं जो आर्यखण्डमे वर्तमान कर्मभूमिका प्रारम्भ होनेसे पहले निवास करते थे। शास्त्रोके कथनानुसार वे लोग भोगभूमिया थे और भोगभूमिया सब उच्चगोत्री होते हैं-उनके नीच गोत्रका उदय ही नही बतलाया गया'-इसलिये भोगभूमियोकी सन्तान होनेके कारण शकयवनादिक लोग भी उच्च-गोत्री ठहरते हैं।
सकलसयमका अनुष्ठान छठे गुणस्थानमे होता है और छठे गुणस्थान तक वे ही मनुष्य पहुँच सकते हैं जो कर्मभूमिया होनेके साथ-साथ उच्चगोत्री होते हैं। चूंकि शक-यवनादिक लोग कर्मभूमिया होनेके साथ-साथ उच्चगोत्री हैं इसलिये वे भी आर्य
१ देखो, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा न० ३०२, ३०३ ।