________________
२४ गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख ३६९ खण्डके दूसरे कर्मभूमिज मनुष्यो ( आर्यों) की तरह सकलसयमके पात्र है।
भगवती आराधनाकी टीकामे श्रीअपराजितसूरिने, कर्मभूमियों और कर्मभूमिजोका स्वरूप बतलाते हुए, कर्मभूमियाँ उन्हे ही वतलाया है जहाँ मनुष्योकी आजीविका असि, मसि, कृषि आदि पट् कर्मों-द्वारा होती है और जहाँ उत्पन्न मनुष्य तपस्वी हुए सकलसयमका पालन करके कर्मशत्रुओका नाश करते हुए सिद्धि अर्थात् निर्वृत्ति तकको प्राप्त करते हैं । यथा -
असिर्मपिः कृपिः शिल्पं वाणिज्यं व्यवहारिता। इति यत्र प्रवर्तन्ते नृणामाजीवयोनयः॥ प्रपाल्य' संयमं यत्र तपः कर्मपरा नरा.। सुरसंगति वा सिद्धि प्रयान्ति हतशत्रवः॥ एताः कर्मभुवो ज्ञयाः पूर्वोक्ता दश पंच च । यत्र संभूय पर्याप्ति यान्ति ते कर्मभूमिजाः॥
इनसे साफ ध्वनित है कि कर्मभूमियोमे उत्पन्न मनुष्य सकलसयमके पात्र होते हैं, और इसलिये उनके उच्चगोत्रका भी निषेध नही किया जा सकता। अत आर्योंकी तरह शक-यवनादि म्लेच्छ भी उच्चगोत्री होते हुए सकलसयमके पात्र हैं, इतना ही नहीं, बल्कि म्लेच्छखण्डोके म्लेच्छ भी कर्मभूमिज मनुष्य होनेके कारण सकलसयमके पात्र हैं, जिनके विपयका विशेष विचार आगे नम्बर ४ मे किया जायगा।
यहॉपर, इस विपयको अधिक स्पष्ट करते हुए, मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि श्रीजयधवलके 'सयमलब्धि' अनुयोगद्वारमे निम्न चूर्णिसूत्र और उसके स्पष्टीकरण-द्वारा आर्यखण्डमे उत्पन्न होनेवाले कर्मभूमिज मनुष्यको सकलसयमका पात्र