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युगवीर-निवन्धावली उत्पन्न होनेवाले मनुष्य सकलसयमके पात्र होते हैं, जैसा कि न० २ मे सिद्ध किया जा चुका है, तब आजकलकी जाती हुई सारी दुनियाके मनुष्य भी सकलसयमके पात्र ठहरते हैं।
और चूंकि सकलसयमके पात्र वे ही हो सकते हैं जो उच्चगोत्री होते हैं, इसलिए आजकलकी जानी हुई दुनियाके सभी मनुष्योको गोत्र-कर्मकी दृष्टिसे उच्चगोत्री कहना होगा-व्यावहारिक दृष्टिकी ऊंच-नीचता अथवा लोकमे प्रचलित उपजातियोके अनेकानेक गोत्रोके साथ उसका कोई सम्बन्ध नही है।
(४) अव रही म्लेच्छखण्डज म्लेच्छोके सकल संयमकी बात, जैन-शास्त्रानुसार भरतक्षेत्रमे पाँच म्लेच्छखण्ड हैं और वे सब आर्यखण्डकी सीमाके बाहर है । वर्तमानमे जानी हुई दुनियासे वे बहुत दूर स्थित हैं, वहाँ के मनुष्योका इस दुनियाके साथ कोई सम्पर्क भी नही है और न यहाँके मनुष्योको उनका कोई जाती परिचय ही है । चक्रवर्तियोके समयमे वहाँके जो म्लेच्छ यहाँ आए थे वे अब तक जीवित नही हैं, न उनका अस्तित्व इस समय यहाँ सभव ही हो सकता है और उनकी जो सन्तानें हुईं वे कभीकी आर्योमे परिणित हो चुकी हैं, उन्हे म्लेच्छखण्डोद्भव नही कहा जा सकता-शास्त्रीजीने भी अपने प्रस्तुत लेखमे उन्हे 'क्षेत्र-आर्य' लिखा है और अपने पूर्व लेखमे (अने० वर्ष २ कि० ३ पृ० २०७) म्लेच्छखण्डोसे आए हुए उन म्लेच्छोको 'कर्म-आर्य' बतलाया है जो यहाँके रीतिरिवाज अपना लेते थे और आर्योकी ही तरह कर्म करने लगते थे, यद्यपि आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्डोके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्पादि षट् कर्मोमे परस्पर कोई भेद नही है-वे दोनो ही कर्मभूमियोमे समान हैं, जैसाकि ऊपर उद्धृत किये हुए अपराजितसूरिके कर्मभूमिविषयक स्वरूपसे प्रकट