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गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख ३८३ सेनाचार्योने, न सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्रने और न उनके टीकाकार केशववर्णीने ।। क्योकि यतिवृपभने अपनी चूर्णिमें अकर्मभूमिक पदके साथ ऐसा कोई शब्द नही रक्खा जिससे उसका वाच्य अधिक स्पष्ट होता या उसकी व्यापक शक्तिका कुछ नियन्त्रण होता। जयधवलकारने अकर्मभूमिकका अर्थ सामान्यरूपसे म्लेच्छखडोका विनिवासी मनुष्य कर दिया । तथा चूर्णिकारके साथ पूर्ण सहमत न होते हुए भी अपना कोई एक सिद्धान्त कायम नही किया । और जो सिद्धान्त प्रथम हेतुके द्वारा इस रूपमे कायम भी किया था कि सिर्फ वे ही म्लेच्छ राजा सकलसयमको ग्रहण कर सकते हैं जो चक्रवर्तीकी सेनाके साथ आर्यखण्डको आकर अपनी बेटी भी चक्रवर्ती या आर्यखडके किसी दूसरे मनुष्यके साथ विवाह देवें, उसका फिर दूसरे हेतु-द्वारा परित्याग कर दिया और यह लिख दिया कि ऐसे म्लेच्छ राजाओ की लडकीसे जो सतान पैदा हो वही सकलसयमकी पात्र हो सकती है ।।। इसी तरह सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी अपनी उक्त गाथामे प्रयुक्त हुए 'मिलेच्छ' शब्दके साथ कोई विशेपण नही जोडा-आर्यखण्डके मनुष्योके साथ विवाह-सम्बन्ध-जैसी कोई शर्त नही लगाई—जिससे उसकी शक्ति सीमित होकर यथार्थतामें परिणत होती ।। और न उनके टीकाकारने ही उस पर कोई लगाम लगाया है, बल्कि खुलेआम म्लेच्छभूमिज-मात्रके लिये सकल सयमके जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट स्थानोका विधान कर दिया है !!! मेरे खयालसे शास्त्रीजीकी रायमे इन आचार्योंको चूर्णिसूत्र आदिमे ऐसे कोई शब्द रख देने चाहिये थे । -सामान्यतया सव म्लेछोको सकलसयमके ग्रहणका अधिकार होकर सिर्फ उन ही म्लेच्छ-राजाओको वह प्राप्त होता