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गोत्रकर्मपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख ३६५ म्लेच्छखण्डोद्भव म्लेच्छ बतलाया है। परन्तु इनमेसे कोई भी बात उनकी ठीक नही है। विद्यानन्दाचार्यने यवनादिकको म्लेच्छखण्डोद्भव नही बतलाया और न म्लेच्छोके अन्तरद्वीपज तथा म्लेच्छखण्डोद्भव ऐसे दो भेद किये हैं, बल्कि अन्तरद्वीपज और कर्मभूमिज ऐसे दो भेद किये हैं, जैसा कि उनके श्लोक-वातिकके निम्न वाक्योसे प्रकट है
"तथान्तरद्वीपजा म्लेच्छाः परे स्युः कर्मभूमिजाः । "कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः। स्युः परे च तदाचारपालनाद्वहुधा जनाः॥"
श्रीपूज्यपाद और अकलकदेवने भी ये ही दो भेद किये है और शक-यवनादिकको म्लेच्छखण्डोद्भव नही लिखा, किन्तु कर्मभूमिज बतलाया है । यथा
"म्लेच्छा द्विविधा अन्तरद्वीपजाः कर्मभूमिजाश्चेति ।" "कर्मभूमिजाश्च शक-यवन-शवर-पुलिन्दादयः ।"
-सर्वार्थासद्धि, राजवातिक __ वास्तवमै आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड दोनो ही कर्मभूमियाँ हैं और इसलिये 'कर्मभूमिज' शब्दमै आर्यखण्डोद्भव तथा म्लेच्छखण्डोद्भव दोनो प्रकारके म्लेच्छोका समावेश है। इसीसे अमृतचन्द्राचार्यने उन्हे स्पष्ट करते हुए म्लेच्छोको तीन भेदोमे विभाजित किया है । अत अमृतचन्द्राचार्यके उक्त वाक्यमे प्रयुक्त हुए 'केचिच्छकादय ' का अर्थ म्लेच्छखण्डोसे आकर आर्यखण्डमे बसनेवाले म्लेच्छ नही, किन्तु 'आर्यखण्डोद्भव' म्लेच्छ ही हो सकता है और यह विशेषण दूसरे म्लेच्छोसे व्यावृत्ति करानेवाला होनेके कारण सार्थक है। अमृतचन्द्राचार्यके समयमे तो म्लेच्छखण्डोसे आकर आर्यखण्डमे बसनेवाले कोई म्लेच्छ थे भी नही,