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युगवीर-निवन्धावली यह आपत्ति वडी ही विचित्र जान पडती है । जिन-पूजाधिकारसीमासा' के उक्त पैराग्राफर्म अपनी ओरसे रावणको व्यभिचारी सिद्ध करनेकी कोई चेप्टा नही की गई है- शास्त्रोमे रावणका
और उसकी प्रतिज्ञाका जैसा कुछ रूप वर्णित है उसे ही प्रदर्शित किया गया है। यदि लेखकजीने पूर्ववर्ती पैराग्राफको ही गौरसे पढा होता तो ऊन्हे यह भी मालूम हो गया होता कि रावणका उदाहरण किस उद्देश्यको लेकर दिया गया है। पुस्तकमे शूद्रोके लिये पूजाके अधिकारको सिद्ध करते हुए बहुत स्पष्ट शब्दोमे यह सावित किया गया है कि शूद्र नित्य-पूजाका अधिकारी ही नही बल्कि ऊँचे दर्जेका नित्य-पूजक भी हो सकता है और नित्यपूजाका अधिकार पापीसे पापी मनुष्यको भी है। पापियो तथा अवतियोका पापाचार यो कही भी उनके पूजनका प्रतिवन्धक नहीं हुआ। इसी वातको दर्शानेके लिये रावण आदिके उदाहरण दिये गये हैं। ऐमी हालतमे द्विजाति ही पूजनादि कर सकता है ऐसी कल्पना निराधार है। रही व्यभिचारजात और व्यभिचारीकी वात, दोनोमे कुछ अन्तर जरूर है और वह अन्तर व्यभिचारजातकी अपेक्षा व्यभिचारीको अधिक पतित बताता है-वास्तवमे व्यभिचारी ही व्यभिचारजातका कारण है । जब एक व्यभिचारी पूजनादिकका अधिकारी है तो कोई भी न्यायवान किसी व्यभिचारजातको उस अधिकारसे वचित नही रख सकता। प्रसिद्ध व्यभिचारजात राजा कर्णने तो जिनदीक्षा तक घारणकर महाव्रत ग्रहण किये हैं, जिसका सप्रमाण उल्लेख पुस्तकमे मौजूद है । फिर थोथे दर्पसे क्या लाभ ? व्यभिचारजात तो "कुड' सन्तान भी होती है, जो भर्तारके जीवित रहते जारसे उत्पन्न होती है, और जिसे कभी-कभी तो उसकी माता भी नही जान पाती कि