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गोत्रकमेपर शास्त्रीजीका उत्तर-लेख ३६३ फेरके साथ वाबू सूरजभानजीके विपयमें कहे गये अपने उन शब्दोको वापिस भी ले रहे हैं जिनकी सूचना इस लेखके शुरूमे की गई है। साथ ही मेरे लिये जिन कटुक शब्दोका प्रयोग किया गया है उसपर लेखके अन्तमे अपना खेद भी व्यक्त कर रहे है-लिख रहे हैं कि "नोटोका उत्तर देते हुए मेरी लेखनी भी कही-कही तीव्र हो गई है और इसका मुझे खेद है ।" ऐसी हालतमे शास्त्रीजीका पूरा लेख छापकर और उसकी पूरी आलोचना करके पाठकोके समय तथा शक्तिका दुरुपयोग करना और व्यर्थकी अप्रिय चर्चाको आगे बढाना उचित मालूम नही होता। अत उज्र-माजरत, सफाई-सचाई तथा व्यक्तिगत आक्षेप और कटुक आलोचनाकी वातोको छोडकर, जो बाते गोत्रकर्मकी प्रस्तुत चर्चासे खास सम्बन्ध रखती है उन्हीपर यहाँ सविशेपरूपसे विचार किये जानेकी जरूरत है। विचारके लिये वे विवादापन्न वातें सक्षेपमे इस प्रकार है --
(१) म्लेच्छोके मूल भेद कितने हैं ? और शक, यवन, शवर तथा पुलिन्दादिक म्लेच्छ आर्यखण्डोद्भव है या म्लेच्छखण्डोद्भव ?
(२) शक, यवन, शवर और पुलिन्दादिक म्लेच्छ सकलसयमके पात्र हैं या कि नही ?
(३) वर्तमान जानी हुई दुनियाके सव मनुष्य उच्चगोत्री है या कि नहीं?
(४) श्री जयधवल और लब्धिसार-जैसे सिद्धान्त-ग्रन्थोके अनुसार म्लेच्छखण्डोके सब मनुष्य सकलसयमके पात्र एवं उच्चगोत्री है या कि नही ? ___इन सब बातोका ही नीचे क्रमश विचार किया जाता है, जिसमे शास्त्रीजीकी तद्विषयक चर्चाकी आलोचना भी रहेगी।