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युगवीर-निवन्धावली जब ऐसी कोई बात नही कही गई और सीताकी अग्नि-परीक्षाने उसके सतीत्वको जगत्मे विख्यात कर रक्खा है तब व्यर्थ ही ऐसे प्रमाणोको देनेसे क्या नतीजा ? इससे तो उल्टा लेखकके अविवेक तथा लेखन-कलाऽनभिज्ञताका पता चलता है। शेष वाते आपत्तिकी वे ही हैं जिनका समाधान न० १ मे किया जा चुका है और इसलिये यहाँ पर उसको दुवारा लिखनेकी ज़रूरत नही। हाँ, सीताका सतीत्व नष्ट न होनेरूप हेतुसे जो लेखकजी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि-"रावण व्यभिचारी या परस्त्री-लम्पट कदापि नही हो सकता" वह वडा ही विचित्र जान पडता है।
और उनके इस अनोखे तर्कपर गभीर प्रकृतिके तार्किकोको भी हँसी आये विना न रहेगी। अपने इस तर्कके द्वारा लेखकजी ऐसे परदार लम्पट एव व्यभिचारी पुरुषको भी अव्यभिचारी तथा निर्दोष ( स्वदार-सतोपी) वतलाना चाहते हैं जो बहुतसी परस्त्रियोका सतीत्व भग कर चुका हो परन्तु एक स्त्रीका सतीत्व भग करनेमे असमर्थ रहा हो। आपका कहना है कि चूंकि उसके द्वारा अमुक स्त्रीका सतीत्व नष्ट नही हुआ इसलिये वह प्रसिद्ध व्यभिचारी पुरुष भी व्यभिचारी अथवा परदार-लम्पट नही हो सकता | कितना विलक्षण यह तर्क है इसे हमारे साधारण पाठक भी समझ सकते हैं--अधिक व्याख्याकी जरूरत नही है ।
(३, “उक्त प्रतिज्ञासे पूर्व कितनी परताराओसे बलास्कार मो किया होगा," यह वाक्य न० २ मे दिये हुए मेरे वाक्यके साथ 'अथवा' शब्दसे जुड़ा हुआ है, जिस शब्दको लेखकने यहाँ छोड दिया है और इसलिये इसके साथ भी उन शब्दोका सम्बन्ध है जो न० २ मे उद्धृत वाक्यके शुरूमे "नहीं कह सकते हैं कि उसने" इस रूपसे दिए हुए है। ऐसी हालतमे इस वाक्यके द्वारा