________________
३०५
२०
एक विलक्षण आरोप प्रकाशनमे यदि कुछ भी शक्ति व्यय करता तो आज हमारी दशा कुछ और ही होती । इतिहाससे यह सिद्ध हो चुका है कि निग्रन्थ दिगम्बर मत ही माल धर्म है।" ।
लेखकी इस भूमिकामे 'जैनियोकी, जैनपुरातत्त्वका, हमे, हमारा, जैनियोका, जैनसिद्धान्त, जैनसमाज, हमारी,' ये शब्द एक वर्गके हैं और वे दिगम्बर-श्वेताम्वरका कोई सम्प्रदाय-भेद न करते हुए अविभक्त जैनसमाज, जैनसिद्धान्त तथा जैनपुरातत्त्वको लेकर लिखे गये हैं, जैसा कि उनकी प्रयोग-स्थिति अथवा लेखकी कथनशैली परसे प्रकट है। और 'हिन्दुओमे, ससार, लोकमान्य, सारे ससारका, सारे विश्वमे' ये शब्द दूसरे वर्गके हैं, जो उस समूहको लक्ष्य करके लिखे गये हैं जिसके साथ अपने सिद्धान्त या अपनी प्राचीनता आदिके सम्बन्धकी अथवा मुकावलेकी कोई बात कही गई हैं। और इस पिछले वर्गके भी दो विभाग किये जा सकते हैं-एक मात्र हिन्दुओ अथवा वैदिक धर्मानुयायियोका और दूसरा अखिल विश्वका । वैदिक धर्मानुयायियोके मुकावलेमैं अपनी प्राचीनताके सस्थापनकी बात लेखके अन्त तक कही गई है, जहाँ एक पूजनविधानका उल्लेख करनेके बाद लिखा है- "यदि हम पाश्चात्यरीत्यानुसार गणना कर उसकी प्रारम्भिक अवस्था या उत्पत्तिकाल पर पहुँचनेका प्रयत्न करेगे तो वैदिक कालसे पूर्व नही तो वरावर अवश्य पहुँच जायँगे । मैं तो कहूँगा कि यह विधान वैदिक कालसे बहुत पूर्व समयका है।" वाकी दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनो सप्रदायोमे कौन पहलेका
और कौन पीछेका ? इस प्रश्नको लेखभरमे कही भी उठाया नही गया है और न सारे लेखको पढनेसे यही मालूम होता है कि लेखक महाशय उसमे दोनो सप्रदायोकी उत्पत्ति पर कोई विचार