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युगवीर-निवन्वावली क्या प्रवृत्ति नही है ? और इस प्रवृत्तिसे क्या लोकका हित-साधन नही होता ? यदि ऐसी अहिंसक, निष्पाप और सयत प्रवृत्तिसे भी लोकका हितसाधन नहीं होता तो फिर लोकहितकी कोई विचित्र ही परिभाषा करनी होगी, जिसे साधुताकी कसौटी बनानेकी प्रेरणा की गई है।
जैनधर्मकी साधुताका निवृत्येकान्तसे यदि कोई सम्बन्ध नही है तो प्रवृत्त्येकान्तसे भी उसका कोई सम्बन्ध नही है-वह तो निवृत्ति-प्रवृत्तिमय अनेकान्तको लिये हुए है। कोई भी समझदार जैन विद्वान् उसे मात्रनिवृत्त्यात्मक नही बतलाता—भले ही निवृत्ति-प्रधान कहे। और निवृत्ति प्रधान कहनेसे उसमे प्रवृत्तिका स्वत. समावेश हो जाता है। वह अपने एक स्थानपर प्रवृत्तिप्रधान है तो दूसरे स्थानपर निवृत्ति-प्रधान है। उसमे सर्वत्र दृष्टिभेद चलता है। यदि सत्यभक्तजी महावीर-स्वामीको "घोरप्रवृत्तिशाली व्यक्ति" बतलाते हैं तो दूसरोके इस कथनपर भी कोई आपत्ति नही की जा सकती कि "भगवान महावीर निवृत्तिमार्गी थे," क्योकि उन्होने अन्तमे कर्मबन्धनसे छूटनेरूप निवृत्तिको सिद्ध किया है। उसकी सिद्धिके लिये उन्हे जो कुछ भी प्रवृत्ति करनी पड़ी है वह सब उसकी साधनारूप थी।
एक स्थानपर टोपी और जूताके उदाहरणके साथ यह भी कहा गया है कि "प्रवृत्ति और निवृत्ति अपने-अपने स्थानपर सत्य हैं और दूसरेके स्थानपर असत्य है परन्तु खेद है कि जैनमुनियोके आचारकी आलोचना करते हुए सत्यभक्तजीने इस सुनहरी नियमको भुला दिया है। क्या एक श्रावक अथवा गृहस्थके लिये जो सावध कर्म विधेय एव सत्य है वे समस्त सावधयोगके त्यागी महाव्रती मुनिके लिये अविधेय और असत्य नही है ? यदि