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૨૨ स्वार्थसे निवृत्ति कैसी ?
३३७ उल्लघन पाया जाता है और कही कही अहकारकी दमक मारती है। ___ यह ठीक है कि 'साधु' शब्दका अर्थ बहुत व्यापक है और 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पदमे भी उस व्यापक साधुताका कितना ही समावेश है । परन्तु फिर भी साधु-सामान्य और साधुविशेषमे अन्तर जरूर होता है-दोनोको एक नही कहा जा सकता। साम्यभावका अवलम्बन लेनेवाले भी दोनोको एक नहीं समझते । साम्यभावका यह अर्थ ही नही है कि लोहे-सोनेको एक माना जाय, प्रशस्त-अप्रशस्तमे कोई भेद न किया जायअथवा निन्दा-स्तुतिको सर्वथा एकरूपमे स्वीकार किया जाय । ऐसा मानना और स्वीकार करना तो अज्ञानताका द्योतक होगा। वास्तवमे अनेक विषमताओके सामने उपस्थित होने पर चित्तमे विषमताका-रागद्वेपादिका–उत्पन्न न होने देना ही साम्यभावका अर्थ है । खेद है कि आज साम्यभावका दम भरनेवाले और बात वातमै समभावकी दुहाई देनेवाले भी अपने रागद्वेषादिमय उद्गारोको रोकनेमे समर्थ नहीं होते । फिर वे दूसरोको साम्यभावका क्या विशेष पाठ पढा सकते हैं ।
यह भी ठीक है कि प्रवृत्तिके बिना निवृत्ति तथा निवृत्तिके बिना प्रवृत्ति नही होती और प्रवृत्ति-हीन निवृत्तिको साधुताकी परिभाषा न बनाना चाहिये । परन्तु प्रवृत्ति भी तो नाना प्रकारकी होती है। एक सकलसयमी समस्त सावद्य-योगसे विरति धारण करता हुआ कषायोको दूर करता है, अपने इन्द्रिय-विषयोको जीतता है, पापाचारसे विरक्त रहता है और इस तरह अपनी वैभाविक परिणतिको हटाता हुआ स्वभावमे स्थिर होनेकी--अपने आत्मलाभको प्राप्त करनेकी-भारी प्रवृत्ति करता है। यह प्रवृत्ति