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पूर्वापर-विरोध नहीं
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तक मैं समझता हूँ, उक्त नोट उन भाई भगवानदीनजीका लिखा हुआ है जो 'महात्मा' पदसे विभूषित हैं और इसलिये उनकी ओरसे जानबूझकर ऐसा किया जानेका कोई कारण ( motive) नही जान पडता । तव यह दोष असावधानताके ही मत्थे मढना होगा । कुछ भी हो, इससे जो गलत फहमी फैली है अथवा फैलनेकी सभावना है उसे दूर कर देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । और इसी से स्पष्टीकरण के तौरपर नीचे दो शब्द और लिख देना उचित जान पड़ता है
उक्त लेखमे लौकिक दृष्टिसे स्वार्थका दूसरा अर्थ " अपना इन्द्रिय-विषय-भोग" किया गया है । यही अर्थ 'मेरी भावना ' के उक्त वाक्यमे प्रयुक्त हुए 'स्वार्थ' शब्दका अभिप्रेत है । दूसरा अर्थं उसी पद्यमे, जिसका उक्त वाक्य एक अग है, 'साम्यभावधन' और 'निजहित' जैसे शब्दो द्वारा व्यक्त किया गया है । और उस साम्यभावरूप धन तथा आत्महितको रखने एव साधनेकी वस्तु बतलाया है— त्यागनेकी नही' । और इसलिये वहाँ 'स्वार्थ' के अर्थमे किसी प्रकारकी विप्रतिपत्ति, भ्रान्ति अथवा कुछ-का- कुछ समझलिया जाने रूप अन्यथापत्ति, नही बनती । 'मेरी भावना ' का वह पूरा पद्य इस प्रकार है . विपयोंकी आशा नही जिनके, साम्यभाव- धन रखते हैं, निज- परके हित-साधनमें जो निशिदिन तत्पर रहते है । स्वार्थ त्यागकी कठिन तपस्या विना खेद जो ऐसे झानी साधु जगतके दुख- समूहको इसके सिवाय लेखमे 'स्वार्थ' शब्दके पारमार्थिक अर्थका जो स्पष्टीकरण स्वामी समन्तभद्रादिके वचनानुसार किया गया है उसीको लक्ष्यमे रखकर 'सिद्धि - सोपान' मे एक सिद्धके लिये
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करते हैं, हरते हैं ॥