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युगवीर-निवन्धावली ब्रह्मचारी समझते हैं और मुझसे उसकी परदार-लम्पटताका सबूत मागते हैं, यह उनकी बुद्धिका कैसा दुर्विपाक है, इसे पाठक स्वय समझ सकते हैं। कम-से-कम उन्हे इतना तो समझना चाहिये था कि सीताके रजामन्द हो जाने पर जव रावण उससे भोग करता तो उसका कामभोगका त्यागीपन कहाँ जाता ? क्या तब भी लेखकजी उसे व्यभिचारी न मानते ? यदि ऐसा है तब तो लेखकजीके व्यभिचारका कुछ अपूर्व ही स्वरूप होना चाहिये। जैन शास्त्रोसे तो उसकी सगति मिलती नही। अस्तु, अब मैं शास्त्राधारसे उस प्रतिज्ञाका भी उल्लेख कर देना चाहता हूँ जो रावणने अनन्तवीर्य केवलीके निकट ग्रहण की थी।।
श्रीरविषणाचार्यने पद्मपुराणके १४ वें पर्वमे अनन्तवीर्य मुनिके उपदेशसे लोगोके व्रत-नियमादि ग्रहण करनेका उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'जब मुनिजीने रावणसे किसी नियमके लेनेके लिये कहा तो वह उस बातको सुनकर बडा ही आकुलित हुआ, भोगानुरक्तचित्त रावणको उत्कट चिन्ताने घेर लिया और वह सोचने लगा कि गृहस्थोके करने योग्य स्थूल हिंसादि ( पच पापो ) मेसे एक भी पापसे विरतिरूप धारण करनेके लिये मैं समर्थ नही हूँ, फिर और किसी बड़े नियमकी तो बात ही क्या है। मेरा चित्त मस्त हाथीकी तरह सब पदार्थोंमे दौडता है और मैं उसे खुद अपने हाथसे निवारण करनेमे समर्थ नही हूँ।' इत्यादि। अन्तमे उसने सोचा कि इतना नियम तो मैं ले सकता हूँ कि जो कोई भी परस्त्री मुझे नही इच्छे तो मैं बल आदिके प्रयोग-द्वारा ( जबर्दस्ती ) उसे ग्रहण नही करूँगा।' और इसके साथ यह भी सोच लिया कि 'तीन लोकमे ऐसी कौनसी उत्तम स्त्री है जो मुझे देखकर कामदेवसे पीडित हुई विकलताको प्राप्त