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स्वार्थसे निवृत्ति कैसी ?
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यह निवृत्ति क्या इक्के-दुक्कोके लिये ही है - सबके लिये नही ? तब इक्के-दुक्कोकी इस स्वार्थ- निवृत्तिसे विश्वभरका उक्त हित - साधन कैसे हो सकेगा, वह कुछ समझमे नही आता । और न यही मालूम होता है कि स्वार्थके उक्त दोनो अर्थोंसे भिन्न विश्वके हितकी और परिभाषा क्या है, जिसे लक्ष्यमे रखकर लेखक महाशयने अपने उक्त कथनकी सृष्टि की है ।
इसी प्रकार एक महाव्रती साधुके लिये, जो सकल - विरतिके रूपमे अपने अहिंसादिक व्रतोका यथेष्ट रीति से पालन कर रहा हो, यह उचित नही है कि वह अपने व्रतके विरुद्ध आरभी, उद्योगी अथवा विरोधी हिंसा करे। यदि किसी मोहादिकके वश होकर वह ऐसा करता है तो अपने पद एव व्रत से गिरता है, और इसलिये उसे खुशीसे उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये । अन्यथा, देश-सयमी और सकल-सयमीके आचारमे फिर कोई अन्तर नही रहता । और इसलिये एक महाव्रत्ती, सकलसयमी एव समस्त सावद्य-योग-विरतिकी प्रतिज्ञासे आवद्ध सच्चे जैन मुनिके विषयमे ऐसी बाते बनाना कि उसे सडको पर झाड़ क्यो न देनी चाहिये ? गिट्टी फोडनेकी मजदूरी करके अपना पेटपालन ( जीवन - निर्वाह ) क्यो न करना चाहिये ? वह अपने हाथसे रसोई क्यो न बताए ? और खेती क्यो न करे ? यह सब सकल - सयमकी विडम्बना करना और उसकी अवहेलना मात्र जान पडता है । यदि सकल - सयम् अपनेको इष्ट न हो अथवा अपनी शक्ति से बाहरकी चीज हो तो इतने परसे ही उस पर कुठाराघात करना और अवज्ञा - पूर्वक उसके महत्त्वको गिरानेकी चेष्टा करना उचित नही है ।
यदि सत्यभक्तजी साधु-सस्था मे घुसे हुए विकारोका -दूर
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