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युगवीर-निबन्धावली अभिप्रेत समझा जावे तो फिर उससे निवृत्ति धारण करनेवालेके लिये यह क्योकर आवश्यक हो सकता है कि वह दूसरोको उन्ही इन्द्रिय-विषय-भोगोकी प्राप्ति करानेमे अधिकाधिक अथवा अपनी उस निवृत्तिसे भी कई गुणी अधिक-प्रवृत्ति करे ? एक मनुष्य जो आत्महित-साधनकी दृष्टिसे---शारीरिक अशक्ततादिकी दृष्टिसे नही-स्त्रीप्रसंगको हेय समझकर त्यागता है उसके लिये क्या यह सगत और उचित होगा कि वह उसी दृष्टिसे दूसरोंको स्त्रीप्रसग कराता फिरे अथवा उनके गठवन्धनकी योजना करता फिरे ? कदापि नही। यह दूसरी बात है कि किसीको भी अपने मोगोपभोगकी सामग्रीको उससे अधिक रूपमे सग्रह नही करना चहिये जितना कि उसको न्याय्य आवश्यकताकी पूर्तिके लिये जरूरी हो, क्योकि ऐसा करनेसे सग्रहकारकी आकुलताओकी वृद्धिके साथ साथ दूसरोको अपनी जरूरियातके पूरा करनेमे बाधा भी उपस्थित होती है और उससे लोककी शान्ति भग होती है । इसी उद्देश्यको लेकर अपरिग्रह, परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोग-परिमाण जैसे व्रतोका विधान किया गया है, जो बहुत ही उचित जान पडता है।
इसके सिवाय, यदि दूसरोको उनके इन्द्रिय-विषय-भोगोकी प्राप्ति कराना ही उनका हित-साधन करना है तो फिर अपते इन्द्रिय-विषय-भोगोने ही कौन-सा अपराध किया है, जिससे उनकी निवृत्ति की जाय ? क्या अपना हित-साधन करना भी अपनेको इष्ट नही है ? और यदि सभी जन अपने-अपने विपयभोगोंके त्यागरूप स्वार्थकी निवृत्ति कर डालें तो फिर वह इन्द्रियविपय-भोगोकी सेवारूप- विश्वहित भी क्या खाक बन सकेगा, जिसके लिये यह सब कुछ किया जाता है ? अथवा --स्वार्थकी