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युगवीर-निवन्धावली विषयोंके क्षणभंगुर भोगरूप नहीं है ।' जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्नवाक्यसे प्रकट है -
स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां
स्वार्थो, न भोगः परिभंगुरात्मा। -स्वयम्भूस्तोत्र ऐसी हालतमे स्वार्थसे निवृत्ति कैसी ? उसमे तो अधिकाधिक प्रवृत्ति होनी चाहिये । ऐसी स्वार्थसाधना तो-जिसमे कषायोकी निवृत्ति की जाती है, इन्द्रिय-विषयोको जीता जाता है, पापाचारसे विरक्ति रहती है और इस रूपमे लोककी भारी सेवा की जाती है-किसीके लिये हानिकर भी नही होती। प्रत्युत इसके, दूसरे जीवोके स्वार्थमें बाधा न पहुँचाते हुए उनके उस स्वार्थ-साधनमे सहायक होती है उनके सामने स्वार्थसिद्धिका आदर्श एव मार्ग उपस्थित करती है और करती है उसपर चलनेकी मूक प्रेरणा । ऐसी स्वार्थ-साधनासे निवृत्तिका अर्थ तो आत्मलाभसे वचित रहने जैसा हुआ, जो किसी तरह भी इष्ट नही हो सकता।
आत्मलाभसे वचित रहना पुद्गलका अभिनन्दन करना है और वह ससारका वढानेवाला-जीवके परिभ्रमणको लम्बा करनेवाला-तथा ससारमे दु ख और अशान्तिकी परम्पराको जन्म देनेवाला है । आत्मलाभसे वचित रहकर भले ही कोई सुखशान्तिके कितने ही गीत गावे और कितने ही उपाय क्यो न करे परन्तु उन सबसे वास्तविक सुखशान्तिकी प्राप्ति नही हो सकती। सुखशान्तिका आत्मलाभ अथवा स्वार्थसिद्धिके साथ अविनाभावसम्बन्ध है-वह कोई बाहरसे आनेवाली चीज नही है। इसी बातको लक्ष्यमे रखकर श्रीपूज्यपादाचार्यने, अपने 'इष्टोपदेश'के निम्न पद्योमे, "स्वार्थ को वा न वांछति" और "परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव" जैसे वाक्योके द्वारा स्व-परके विवेकको