________________
स्वार्थ से निवृत्ति कैसी ?
: ११ :
श्रीसत्यभक्त प ० दरबारीलालजीका एक लेख, जो लिखित व्याख्यानके रूपमे गत १४ सितम्बर ९६५६ को बम्बईकी पर्युषणव्याख्यान-सभामे पढा गया था और 'सत्य-सन्देश' के अक न० २० मे 'जैनधर्म और निवृत्तिमार्ग' नामसे मुद्रित हुआ है, हालमे मुझे पढनेको मिला। इस लेखमे सत्यभक्तजी प्रवृत्ति और निवृत्तिकी अपनी व्याख्या करते हुए यह एकान्त उपदेश देते हैं कि - "स्वार्थसे निवृत्ति कीजिये, किन्तु परार्थमे उससे कई गुणी प्रवृत्ति कीजिये ।"
यह उपदेश प्राय ससारका ही मार्ग जान पडता हैपरमार्थका नही । और इसलिये जो लोग ससारको ही सब कुछ समझते हैं, आत्माकी परमविशुद्धि-सिद्धि - मुक्ति अथवा पूर्णस्वतन्त्रता जिन्हे अभीष्ट नही है और न जो इस बातको ही मान्य करते हैं कि यह आत्मा सम्पूर्ण वैभाविक परिणतियोसे छूटकर स्वभावमे स्थित हो सकता है उन्हे उक्त उपदेश किसी तरह इष्ट हो सकता है और वे उसे अपना सकते हैं । परन्तु जो लोग आत्मार्थ-साधनकी दृष्टिसे ससार - बन्धन से छूटनेके मार्गपर लगे हुए हैं, स्थितप्रज्ञकी अवस्था अथवा ब्राह्मी -स्थितिको प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए यह एकान्त उपदेश उपादेय मालूम नही होता । क्योकि स्वार्थ तो वास्तवमे आत्मार्थ - आत्मीयप्रयोजन अथवा आत्माके निजी अभीष्ट एव ध्येयका नाम है और वह 'आत्यन्तिक स्वास्थ्यरूप - अविनाशी स्वात्मस्थितिरूप है, इन्द्रिय