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ब्रह्मचारीजीकी विचित्र स्थिति और अजीव निर्णय ३२९ इस प्रकार एक कालमकी समालोचनाका पौन भाग व्यर्थकी अनावश्यक और असंगत बातोसे भरा हुआ है। अच्छा होता यदि इतने स्थान पर पुस्तकका कुछ विशेष परिचय दिया जाता। परन्तु जान पडता है ब्रह्मचारीजीकी चलती लेखनीको कभीकभी विशेष परिचयकी बात तो दूर, आवश्यक सामान्य परिचयकी भी कुछ चिन्ता नहीं रहती, जिसका एक ताजा उदाहरण गत ३१ मईके 'जैनमित्र' में प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डाक्टर पाठक' नामक निबन्धका परिचय है, जिसमे यहाँ तक नही बतलाया गया कि डा० पाठकका इस निबन्धसे क्या सम्बन्ध है, जबकि यह बतलाना चाहिये था कि डा० के० बी० पाठकने समन्तभद्रका समय कुछ युक्तियोके आधार पर आठवी शताब्दी करार दिया था, उन सब युक्तियोका इस निबन्धमे कितनी खोजके साथ कैसा कुछ खडन किया गया है।
खेद है ब्रह्मचारीजी बिना सोचे-समझे एक बात पर आपत्ति करने तो वैठ गये परन्तु वे उसका ठीक तौरसे निर्वाह नही कर सके और यो ही यद्वा तद्वा लिख गये हैं।
आजकल ब्रह्मचारीजी बौद्धधर्मको अपना रहे हैं और साथ ही जैनधर्मको छोड भी नही रहे हैं। आपका कहना है कि प्राचीन बौद्धधर्म और जैनधर्म एक ही थे—समान थे—निर्वाणका जो स्वरूप जैन सिद्धान्तमे वर्णित है वही बौद्ध-सिद्धान्तमे मुझे झलकता है। अमुक बौद्ध सूत्रमे मोक्षमार्गका अच्छा वर्णन है, बहुतसे बौद्धसूत्रोको पढनेसे ऐसा ही आनन्द आता है मानो जैन सिद्धान्तका स्वाध्याय हो रहा हो, इत्यादि । और इस तरह आप प्रकारान्तरसे यह प्रतिपादन करते है अथवा सुझा रहे हैं कि स्वामी समन्तभद्र और अकलकदेव जैसे महान आचार्योने बौद्ध