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युगवीर-निवन्धावली बातोमे श्वेताम्बरी हिन्दुओसे भी आगे बढ गए हैं। हिन्दू तो शूद्रोको वेद भी नही पढने देते हैं। मुक्ति कैसी ? इस लिये हिन्दू स्त्रियो और शूद्रोको मुक्तिका मुजदह सुनानेका यही भाव हो सकता था कि इस वहानेसे भक्तोकी सस्या बढाई जावे, क्योकि भक्तोकी सख्यासे ही भिक्षाका अधिक लाभ होना सभव है।"
पाठकगण देखिये, कितने तिरस्कारपूर्ण उद्गार है और कैसी विचित्र कल्पना है ।। क्या दुभिक्षम श्वेताम्बरोंके पूर्वपुरुपोका जैनियोके यहाँसे पेटपालन (1) नही हो सका और उन्होने अजेनियोके यहाँसे भिक्षा लेनेके लिये ही वस्त्र धारण किये ? और क्या स्त्रियो तथा शूद्रोसे भोजन प्राप्त करनेके लिये ही उन्हें मुक्तिका सदेश सुनाया गया-उसका अधिकार दिया गया ? कितनी विलक्षण वुद्धिकी कल्पना है ।। इस अद्भुत कल्पनाको करते हुए वैरिष्टर साहब अपने दिगम्वर शास्त्रोकी मर्यादाका भी उल्लघन कर गये हैं और जो जीमे आया लिख मारा है। श्रीरत्ननन्दि आचार्यके 'भद्रवाह-चरित्र' मे कही भी यह नही लिखा है कि दुर्भिक्षके समय ऐसा हुआ अथवा उस अवशिष्ट मुनि सघको जैनियोके घरसे भोजन नही मिला और उसने अजैनोंके यहाँसे भोजन प्राप्त करनेके लिये ही वस्त्र धारण किये । बल्कि कुवेरमित्र, जिनदास, माधवदत्त और वन्धुदत्त आदि जिन-जिन अतुल विभवधारी बडे-बडे सेठोका उल्लेख किया है उन सवको बडे श्रद्धासम्पन्न श्रावक लिखा है, जिन्होने मुनिसघकी पूरे तौरसे सेवा की है, दीन दुखियोको बहुत कुछ दान दिया है और जिनकी प्रार्थना पर ही वह मुनिसघ दक्षिणको जानेसे रुका था । अत लेखकी ऐसी बेहूदी और निरर्गल स्थिति होते हुए उसे 'अनेकान्त' मे स्थान देना करो उचित हो सकता था ? यदि किसी तरह