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एक विलक्षण आरोप कोई उल्लेख अभी तक नही मिला और इसलिये उपलब्ध साहित्य परसे मैं यही समझता हूँ कि मूल जैनधर्मकी धारा आगे चल कर दो भागोमे विभाजित हो गई है-एक दिगम्बरमत और दूसरा श्वेताम्बरमत, जैसा कि ऊपरके कथनसे प्रकट है। ___ आशा है इस लेखसे बैरिष्टर साहब और दूसरे सज्जन भी समाधानको प्राप्त होगे। अन्त मे वैरिष्टर साहबसे निवेदन है कि वे भविष्यमे जो कुछ लिखे उसे बहुत सोच-समझ-कर अच्छे ऊंचे-तुले, शिष्ट, शान्त तथा गभीर शब्दोमे लिखे, इसीमे उनका गौरव है, यो ही किसी उत्तेजना या आवेशके वश होकर जैसे तैसे कोई बात सुपूर्द कलम न करें और इस तरह व्यर्थकी अप्रिय चर्चाको अवसर न देवे । बाकी कर्तव्यानुरोधसे लिखे हुए मेरे इस लेखके किसी शब्द परसे येदि उन्हे कुछ चोट पहुंचे तो उसके लिये मैं क्षमा चाहता है। उन्हे खुदको ही इसके लिये ज़िम्मेदार समझ कर शान्ति धारण करनी चाहिये ।
-अनेकान्त वर्ष १, किरण ११-१२, अक्तूबर १६३०