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युगवीर-निवन्धावली भेदवाली उत्तरधाराओ एवं शाखाओकी अपेक्षासे मूल कहा जा सकता है। इसी तरह प्राचीनता और अप्राचीनताका हाल है । मूलधाराकी प्राचीनताकी दुष्टिसे तथा अपनी उत्तरकालीन शाखाओकी दृष्टिसे दोनो प्राचीन है और अपनी उत्पत्ति तथा नामकरण-समयकी अपेक्षासे दोनो अर्वाचीन है। रही असली और वेअसलीकी वात, असली मूलधाराके अधिकाश जलकी अपेक्षा दोनो असली है, और चूँकि दोनोमे वादको इधर-उधरसे अनेक नदी-नाले शामिल हो गये हैं और उन्होंने उनके मूल जलको विकृत कर दिया है, इस लिये दोनो ही अपने वर्तमानरूपमे असली नही है। इस प्रकार अनेकान्तदृष्टिसे देखने पर दोनो सम्प्रदायोकी मूलता-प्राचीनता आदिका रहस्य भले प्रकार समझमे आ सकता है। वाकी जिस सम्प्रदायको यह दावा हो कि वही एक अविकल मूलधारा है जो अब तक सीधी चली आई है और दूसरा सप्रदाय उसमेसे एक नालेके तौर पर या ऐसे निकल गया है जैसे वटवृक्षमेसे जटाएँ निकलती है, तो उसे वहुत प्राचीन साहित्यपरसे यह स्पष्टरूपमे दिखलाना होगा कि उसमे कहाँ पर उसके वर्तमान नामादिकका उल्लेख है। अर्थात् दिगम्बर श्वेताम्बरोकी और श्वेताम्बर दिगम्थरोको उत्पत्ति विक्रमकी दूसरी शताब्दीके पूर्वार्धमे बतलाते हैं, तब कमसे कम विक्रमकी पहली शताब्दीसे पूर्वके रचे हुए ग्रथादिकमें यह स्पष्ट दिखलाना होगा कि उनमे 'दिगम्बरमत-धर्म' या 'श्वेताम्बरमतधर्म' ऐसा कुछ उल्लेक है और साथमे उसकी वे विशेषताएँ भी दी हुई हैं जो उसे दूसरे सम्प्रदायसे भिन्न करती हैं। दूसरे शब्दो परसे अनुमानादिक लगा कर बतलानेकी ज़रूरत नही । जहाँ तक मैने प्राचीन साहित्यका अध्ययन किया है मुझे ऐसा