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युगवीर-निवन्धावली
उपसंहार
हाँ, साम्प्रदायिकताको पुष्ट करना ही यदि सहधर्मी वात्सल्यका लक्षण हो तो उसकी बू जरूर अनेकान्त-द्वारा पुष्ट नहीं होती किन्तु एकान्त-द्वारा पुष्ट होती है । 'अनेकान्त'को साम्प्रदायिकताके पकसे अलिप्त रखनेकी पूरी कोशिश की जाती है, उसका उदय ही इस बातको लेकर हुआ है कि उसमे किसी सम्प्रदायविगेपके अनुचित पक्षपातको स्थान नही दिया जायगा। 'अनेकान्त'की दृष्टिमे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो समान है, दोनो ही इसके पाठक तथा ग्राहक हैं और दोनो ही सम्प्रदायोके महानुभाव उस वीर-सेवक-सघ नामक सस्थाके सदस्य हैं जिसके द्वारा समन्तभद्राश्रमकी स्थापना हुई और जिसका यह मुख पत्र है । श्वेताम्बर सदस्योमे प० सुखलालजी, प० बेचरदासजी और मुनि कल्याणविजयजी जैसे प्रौढ विद्वानोके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय हैं, जो इस सस्थाकी उदारनीति तथा कार्यपद्धतिको पसन्द करके ही सदस्य हुए हैं। जिस समय यह सस्था कायम की गई थी उसी समय यह निश्चित कर लिया गया था कि इसे स्वतन्त्र रक्खा जायगा, इसीसे यह पूर्व-स्थापित किसी सभा सोसाइटीकी आधीनतामे नही खोली गई। दिगम्बर जैन परिषद्के मत्री बाबू रतनलालजी और खुद बैरिष्टर साहबने बहतेरा चाहा और कोशिश की कि यह सस्था परिषद्के अडरमे----उसकी शाखारूपसे-खोली जाय, परन्तु उसके द्वारा सस्थाके क्षेत्रको सीमित और उसकी नीतिको कुछ सकुचित करना उचित नही समझा गया और इसलिए उनका वह प्रस्ताव मुख्य सस्थापको-द्वारा अस्वीकृत किया गया । ऐसी हालतमे भले ही यह सस्था समाजके