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एक विलक्षण आरोप
३१५ इसलिये नही किया है, कि 'अनेकान्त' इच्छानुसार अन्ट-सन्ट लिखता रहे।"
"अगर 'अनेकान्त' इतिहासमे जैनत्वकी सुगध पैदा नही कर सकता है तो उसकी कोई जरूरत नहीं है।" । ___ और इस तरह 'अनेकान्त' की तरफसे लोगोको भडकाने, उन्हे प्रकारान्तरसे उसकी सहायता न करनेके लिये प्रेरित करने और उसका जीवन तक समाप्त कर देने की आपने चेष्टा की है।
ये हैं सब आपकी समालोचनाके खास नमूने । इसे कहते हैं गुणको छोडकर अवगुण ग्रहण-करना, और वह अवगुण भी कैसा ? विभगावधि-वाले जीवकी बुद्धिमे स्थित जैसा, जो माताके चमचेसे दूध पिलानेको भी मुँह फाडना समझता है । और इसे कहते हैं एक सलूके लिए भेसेको वध करनेके लिए उतारू हो जाना । जिन सख्याबन्ध जैन-अजैन विद्वानोको 'अनेकान्त'मे सब ओरसे गुणोका दर्शन होता है, इतिहास, साहित्य एव तत्त्वज्ञानका महत्व दिखलाई पडता है, जो सच्चे जैनत्वकी सुगधसे इसे व्याप्त पाते हैं और जो इसकी प्रशसामे मुक्तकण्ठ बने हुए है, तथा जिनके हृदयोद्गार 'अनेकान्त'की प्रत्येक किरणमे निकलते रहे हैं, वे शायद बैरिष्टर साहबसे कह बैठे—'महाशय जी । क्रोध तथा पक्षपातके आवेशवश आपकी दृष्टिमे विकार आ गया है, इसीसे आपको 'अनेकान्त'मे कुछ गुणकी वात दिखलाई नही पडती अथवा जो कुछ दिखलाई दे रहा है वह सब अन्यथा ही दिखलाई दे रहा है । और इसी तरह नासिका विकृत होकर उसकी घ्राणशक्ति भी नष्टप्राय हो गई है, इसीसे इसकी जो सुगध चतुर्दिक फैल रही है वह आपको महसूस नहीं होती और आप उसमे जैनत्वकी कोई गध नही पा रहे हैं।'