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एक विलक्षण आरोप
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तिरस्कारके शब्दोका प्रयोग भी करता है और गभीर विचारणासे एकदम रहित है। कई सज्जनोको उसे पढ कर सुनाया गया तथा पढनेको दिया गया परन्तु किसीने भी उसे 'अनेकान्त के लिये पसन्द नही किया। 'अनेकान्त' जिस उदारनीति, साम्प्रदायिकपक्षपात-रहितता, अनेकान्तात्मक-विचार-पद्धति और भाषाके शिष्ट, सौम्य तथा गभीर होनेके अभिवचनको लेकर अवतरित हुआ है उसके वह अनुकूल ही नही पाया गया, और इसलिये नही छापा गया। ___यहाँ पर उस लेख' के युक्तिवाद पर, विचारका कोई अवसर नही है उसके लिये तो जुदा ही स्थान और काफी समय होना चाहिये- सिर्फ दो नमूने लेखका कुछ आभास करानेके लिये नीचे दिये जाते हैं -
१. "गौतम और केसीके वार्तालापका विषय 'चोरकी दाढीमे तिनका' के समान है। दिगम्बरियोंके यहाँ ऐसा कोई वार्तालाप नही दर्ज है। इससे साफ़ जाहिर है कि दिगम्वरियोको अपने मतमे कमजोरी नही मालूम हुई और श्वेताम्बरियोको हुई।" इत्यादि ।
२. "श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति बिलकुल कुदरती तौरसे समझमे आ जाती है । सख्त कहतके जमानेमे जब जैनियोके यहाँसे पेट पालन न हो सका तो अजैनियोसे भिक्षा लेनी पडी और इस वजहसे वस्त्र धारण करने पडे, क्योकि उनके यहाँ दिगम्बरी साधुओकी मान्यता न थी। इसी कारणसे स्त्रीमुक्ति और शूद्रमुक्तिका सिद्धान्त भी आसानोसे समझमे आ जाता है। इन
१. यह लेख 'वीर' के उसी अङ्कमें और 'जैनमित्र के ४-९-३० में छपा है।