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एक विलक्षण आरोप
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वह यह है कि शायद सम्पादकजी श्वेताम्बरी मतको ही मूल मानते होगे, नही तो इस 'मूल' के शब्दके ऊपर फुटनोटकी क्या जरूरत थी ? हाँ, और याद आई । बम्बईसे मैंने भी करीब तीन माहके हुए एक लेख श्वेताम्बरीमतके मूलदिगम्बरीमतकी शाखा होनेके बारेमे लिख कर 'अनेकान्त' मे प्रगट होनेको भेजा था । वह अभी तक मेरे इल्म मे 'अनेकान्त' मे नही छपा है । शायद इसी कारण से न छापा गया होगा कि वह खुल्लमखुल्ला दिगम्बरी मतको सनातन जैनधर्मं बतलाता था और श्वेताम्बरी सम्प्रदायके 'मूलत्व' के दावेको जड मूलसे उखाड फेकता था । "
इससे स्पष्ट है कि उक्त नोटमे प्रयुक्त हुए 'मूलकी मर्यादा' शब्दोका अर्थ ही बैरिष्टर साहब ठीक नही समझ सके हैं, वे चक्करमे पड गये हैं और वैसे ही बिना समझे अटकलपच्चू उसकी आलोचना करनेके लिये प्रवृत्त हुए हैं । इसीलिये 'मर्यादा' का विचार करते हुए आप मर्यादासे बाहर हो गये हैं और आपने सम्पादकके विपयमे एक विलक्षण आरीप ( इल्जाम ) की सृष्टि कर डाली है, जिसका खुलासा इस प्रकार है
'सम्पादकजी श्वेताम्बरीमतको ही मूलधर्म मानते होगे, यदि ऐसा न होता तो 'मूल' शब्द पर फुटनोट दिया ही न जाताउसके देनेकी कोई जरूरत ही नही थी, दूसरे श्वेताम्बरो के मूलत्व ( प्राचीनत्व ) के विरोध में जो लेख उनके पास भेजा गया था उसको 'अनेकान्त' मे जरूर छाप देते, न छापनेकी कोई वजह नही थी । '
इस आरोप और उसके युक्तिवादके सम्बधमे मैं यहाँ पर सिर्फ इतना ही बतला देना चाहता है कि वह बिलकुल कल्पित और वे बुनियाद ( निर्मूल ) है | नोट लेखकी जिस स्थितिमे