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एक विलक्षण आरोप
३०१ कौन-सी बातको " ऐवकी बात" लिखा गया है ? और किसीको अपनी राय जाहिर करनेके लिये इसमे कहाँ रोका गया है ? इन सब बातोको सहृदय पाठक स्वय समझ सकते हैं । परन्तु फिर भी वैरिष्टर साहब उक्त नोटकी आलोचनामे लिखते हैं
" सम्पादकजीने मुँह खोलना, जबान हिलाना, बोलना तक बन्द कर दिया । लेखकने कोन ऐबकी बात लिखी थी कि जिस - पर भी आपसे न रहा गया और फुटनोट जोड ही दिया । क्या हर शख्स अपनी राय भी अब जाहिर न कर सकेगा ?"
पाठकगण, देखा कितनी वढिया समालोचना है | सम्पादकने तो लेखको छाप देनेके कारण लेखकका मुँह खोलना आदि कुछ भी वन्द नही किया, परन्तु वैरिष्टर साहब तो सम्पादकीय नोटोका विरोध करके सम्पादकको मुँह खोलने और अपनी राय जाहिर करनेसे रोकना चाहते हैं और फिर खुद ही यह प्रश्न करने बैठते हैं कि "क्या हर शख्स अपनी राय भी अब जाहिर न कर सकेगा ? इससे अधिक आश्चर्यकी बात और क्या हो सकती है ? आपको कोपावेशमे यह भी सूझ नही पडा कि 'हर शख्स' मे सम्पादक भी तो शामिल है फिर उसके राय जाहिर करनेके अधिकारपर आपत्ति क्यो ?
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इसी सम्बन्धमे आप लिखते हैं कि "बाबू छोटेलालजीके शब्द तो निहायत गंभीर हैं।" बेशक गंभीर हैं, परन्तु नोट भी उनपर कुछ कम गभीर नही है । बाकी उस गभीरताका आधार आप जिन " एक हद तक " शब्दोको मान रहे हैं उनके प्रयोगरहस्यको आप स्वत नही समझ सकते — उसे सम्पादक और लेखक महाशय ही जानते हैं । हाँ, इतना आपको जरूर बतला देना होगा कि यदि उक्त शब्द वाक्यके साथमे न होते तो फिर