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उपासना-विषयक समाधान
२७९ विपय सामान्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जान पडता हे । तव मन्दिरमूर्तियोकी नाना प्रकारकी रचनाओ तथा पूजनादि विधानोकी विशेप-विशेप क्रियाओका अनादिनिधनश्रुतसे कैसे उपदेश होता आया है, इसे शास्त्रीजी जरा समझाकर बतलाएँ तो सही ? उदाहरणके लिये पार्श्वनाथकी कुछ मूर्तियोपर सर्पके फणका बनाया जाना और फणकी सख्यामे भी ५, ७, ६, ११ जैसे विकल्पोका होना, अथवा मूर्तियोके कानोको कधोतक मिला देना, मन्दिरोकी चित्र-विचित्र आकृतिके साथ-साथ उनकी दीवारोपर पावापुरके वर्तमान जल-मन्दिर जैसे आधुनिक चित्रोका खीचा जाना और रगे चावलोको पुष्प तथा गोलेके रंगे टुकडोको दीपक कहकर चढाना, इन चैत्य-चैत्यालय तथा पूजन सम्बन्धी वर्तमान क्रियाओको ही लीजिये और उनके तद्रूप उपदेशको अनादिनिधनश्रुतसे सिद्ध करके बतलाइये । परन्तु इस बतलानेमे इतना खयाल अवश्य रहे कि क्रियाओके पूरे रूपका उल्लेख करते हुए, कही श्रावकोकी भक्ति, रुचि तथा शक्ति आदिका उन क्रियाओके साथमें सयोग अथवा समिश्रण न हो जाय, नही तो वे क्रियाएँ अनादिनिधन न रह सकेंगी और न शास्त्रीजीके मतानुसार उनमे धर्मांगता तथा प्रमाणताका ही प्रवेश हो सकेगा। ___ और हाँ, शास्त्रीजीने तो अपने उक्त नतीजेमे 'या' शब्दके प्रयोग-द्वारा भगवानके उपदेशका विकल्परूपसे उल्लेख किया है तब आप लाजिमी तौरपर यह कैसे कह सकते हैं कि भगवान सर्वज्ञने उन सब क्रियाओका उपदेश दिया है ? और यदि नही कह
चित्पुरुषेण कचित् कदाचित् कथचिदुत्प्रेक्षितमिति । तेषामेव विशेषापेक्षया आदिरन्तश्व सभवतीति मतिपूर्वमिव्युच्यते ।