________________
एक आक्षेप
२९१ अपनी टिप्पणियो अथवा लेखोके विरुद्ध किसीका सशोधन नही छापता । वाकी सम्पादककी ओरसे जिस किसी सशोधनके निकाले जानेकी प्रेरणा की गई है उसे उसके औचित्य-विचारपर छोडा गया है। उसने लेखके छापनेमे अपनी किसी गलतीका अनुभव नहीं किया और इसलिये किसी सशोधनके देनेकी जरूरत नहीं समझी। फिर उसपर 'दिगम्बरजैन' वाले लेखमे आपत्ति कैसी ? और इस लेखमे अपने पूर्वपत्रोके विरुद्ध लिखनेका साहस कैसा ।।
एक बात और भी बतला देनेकी है, और वह यह कि पहले पत्रके विरुद्ध दूसरे पत्र और आक्षेप-वाले लेखमे सन् १९१८ वाले पक्तिके रूपको देख लेनेकी और तदनुसार उस "नोट" नामक लेखको ठीक कर लेनेकी जो नई वात उठाई गई है, उससे लेखक महाशय लेखके छापने-न-छापनेके विषयमे क्या नतीजा निकालना चाहते हैं, वह कुछ समझमे नही आता | सन् १६१८ के उस पाठको तो मैने खुद ही लेखका सपादन करते हुए देख लिया था और उसके अनुसार जहाँ कही पहले पाठको देते हुए आपके लिखनेमे कुछ भूल हुई थी उसे सुधार भी दिया था। पर उससे तो लेखके छापने या न छापनेका प्रश्न कोई हल नहीं होता। इससे मालूम होता है कि लेखक महाशय इतने असावधान है कि वे अभी तक भी अपनी भूलको नही समझ रहे है-यह भी नही समझ रहे हैं कि पहले हमने क्या लिखा और अब क्या लिख रहे हैं--और वरावर भूल-पर-भूल करते चले जाते हैं । पहली भूल आपने पहला लेख लिखनेमे की, दूसरी भूल दूसरे पत्रके भेजनेमे और तीसरी भूल दिगम्बर जैन' वाले लेखके आक्षेप-वाले अशको लिखनेमे की है। आपके लेखो तथा पत्रोको देखनेसे हर कोई विचारक आपकी भारी असावधानीका