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एक विलक्षण आरोप
वाबू कामताप्रसादजीके लेखपर जो नोट 'अनेकान्त' की ५ वी किरणमे लगाये गये थे उनपरसे वाबू साहब रुष्ट हुए सो तो हुए ही, परन्तु उनके मित्र वैरिष्टर चम्पतरायजी भी रुष्ट हो गये हैं-उन्हे अपने खास मित्रके लेखकी शानमे ऐसे नोट असह्य हो उठे हैं और इसलिये आपने उन्हे तथा साथमे सहारेके लिये वाबू छोटेलालजीके लेखके नोटोको भी लेकर, उक्त किरणकी समालोचनाके नामपर, एक लेख लिख डाला है और उसके द्वारा 'अनेकान्त' तथा उसके सम्पादकके प्रति अपना भारी रोप व्यक्त किया है । यह लेख जून सन् १६३० के 'वीर' और २८ अगस्त १६३० के 'जैन-मित्र' में प्रकट हुआ है। लेखमे सम्पादकको “मकतबके मौलवी साहब'-"परागदहदिल मौलवी साहब''-उसके नोटोको "कमचियाँ" और उनपरसे होनेवाले अनुभवको "तडाकेका मजा", "चटखारोका आनन्द", "चटपटा चटखारा" और "मजेदार तडाकोका लुत्फ" इत्यादि बतला कर हिंसानन्दी रौद्र ध्यानका एक पार्ट खेला गया है।
इस लेखपरसे वैरिष्टर साहवकी मनोवृत्ति और उनकी लेखन-पद्धतिको मालूम करके मुझे खेद हुआ। यदि यह लेख मेरे नोटोंके विरोधमे किसी गहरे युक्तिवाद और गम्भीर विचारको लिये होता, अथवा उससे महज आवेश ही आवेश या एक विदूपककी कृति-जैसा कोरा बातूनी जमाखर्च ही रहता तो शायद मुझे उसके विरोधमे कुछ लिखनेकी भी जरूरत न होती, क्योकि मैं अपना