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एक आक्षेप
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साथ ही, जायसवालजीके अन्तिम पाठको “बहुत ठीक" बतलाया था। परन्तु दैवयोगसे मुनिजीका पाठ जायसवालजीका ही पाठ था और वह उनका अन्तिम पाठ ही था, इससे सपादकीय नोटो द्वारा जब उस लेखकी नि सारता और व्यर्थता प्रकट की गई तब बाबू साहबकी आँखे कुछ खुली और उन्होंने अपने उपहास आदिके साथ यह महसूस किया कि, वह लेख छपना नही चाहिये था। ऐसी हालतमें मुनासिब तो यह था कि आप अपनी भूलको स्वीकार करते और कहते कि मैं अपने लेखको वापिस लेता हैयही उसका एक सशोधन हो सकता था-अथवा मौन हो रहते । परन्तु आपसे दोनो बाते नही बन सकी और इसलिये आप किसी तरहपर उसके छापनेका इलजाम सपादकके सिर थोपना चाहते हैं और यह कहना चाहते हैं कि हमने तो उसके छापनेके लिये अमुक शर्त लगाई थी अथवा "उस हालतमे ही प्रकट करनेको लिखा था जब कि आप १६१८ मे जो इस पक्तिका नया रूप प्रकट हुआ है उसे देखकर इसे ठीक कर ले ।" परन्तु पहले पत्रमें ऐसी कोई शर्त आदि नही है-उसमे साफ तौर पर तीनो लेखोमे से जो पसद आए उसे प्रकट करने और बाकीको लौटा देनेकी प्रेरणा की गई है । साथ ही, यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि लेखकने जायसवालजीके पहले ( सन् १९१८ वाले ) और अन्तिम ( गतवर्ष वाले ) सशोधित पाठोको देख लिया है, उन्हीका अन्तर लेखमे प्रकट किया है, बीचका सशोधित देखा नही उसे देख लेनेकी प्रेरणा की गई है और इस प्रेरणाका अभिप्राय इतना ही हो सकता है कि, यदि वह बीचका पाठ भी मिल जाय तो उसे भी दे दीजिये, सभव है मुनिजीका पाठ उसीसे सम्बन्ध रखता हो और उन्हे नये पाठकी खबर ही न हो। परन्तु मुनिजीका पाठ जब बिलकुल नया पाठ ही मालूम हुआ तब सपादकको उस