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एक आक्षेप
लेखोका सम्पादन करते समय जिस लेखमे मुझे जो बात विरुद्ध, भ्रामक, त्रुटिपूर्ण गलतफहमीको लिये हुए अथवा स्पप्टीकरणके योग्य प्रतिभासित होती है और मैं उसपर उसी समय कुछ प्रकाश डालना उचित समझता हूँ तो उसपर यथाशक्ति सयत भाषामे अपना ( सम्पादकीय) नोट लगा देता हूँ। इससे 'पाठकोको सत्यके निर्णयमे बहुत बडी सहायता मिलती है, भ्रम तथा गलतियाँ फैलने नही पाती, त्रुटियोका कितना ही निरसन हो जाता है और साथ ही, पाठकोकी शक्ति तथा समयका वहुत-सा दुरुपयोग होनेसे बच जाता है। सत्यका ही एक लक्ष्य रहनेसे इन नोटोमे किसीकी कोई रु-रिआयत अथवा अनुचित पक्षा-पक्षी नहीं की जाती, और न इसलिये मुझे अपने श्रद्धेय मित्रो प० नाथूरामजी प्रेमी तथा प० सुखलालजी जैसे विद्वानो के लेखोपर भी नोट लगाने पडे हैं, मुनि पुण्यविजय और मुनि कल्याण विजय जो जैसे विचारकोके लेख भी उनसे अछूते नही रहे हैं । परन्तु किसीने भी उन परसे बुरा नही माना, बल्कि ऐतिहासिक विद्वानोके योग्य और सत्य-प्रेमियोको शोभा देनेवाली प्रसन्नता ही प्रकट की है। और भी दूसरे विचारक तथा निष्पक्ष विद्वान मेरी इस विचार-पद्धतिका अभिनन्दन कर रहे हैं, जिसका कुछ परिचय इस किरणमे भी पाठकोको दीवान साहब महाराजा कोल्हापुर जैसे विद्वानोकी सम्मतियोसे मालूम हो सकेगा। अस्तु । __इसी विचार-पद्धतिके अनुसार 'अनेकान्त' की चौथी और 'पाँचवी किरणमे प्रकाशित होनेवाले बाबू कामताप्रसादजी