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युगवीर- निवन्धावली
"अनेकान्त' के प्रवीण सम्पादकने हमारे लेख पर कई आपत्तियों की हैं । उनका उत्तर इसी पत्रमे छपना ठीक था, परन्तु उक्त सम्पादक महोदयका अपनी सम्पादकीय टिप्पणियोके विरुद्ध लेख छाप देना मुझे अशक्य जँचा, क्योकि पिछले सवकसे मैं इस ही नतीजेको पहुँचा हूँ । 'अनेकान्त' की चौथी किरणमे मेरा एक नोटे खारवेलके लेखकी १४वी पक्तिके सम्वन्धमे प्रकट करके मान्य सपादकने एक उपहास-सा किया है और यह जाहिर किया है मानो उस पक्तिका विशेष सम्बन्ध श्वेताम्बरीय सिद्धान्तसे है और इस सम्बन्धमे उन्होने मि० जायसवालका वह अर्थ भी पेश किया है जिसमे 'याप ज्ञापक' शब्दका अर्थ जैन साधू करके, उन साधुओको सवस्त्र प्रकट किया गया है । मैंने इसपर उनको लिखा कि पूर्वोक्त नोटको उस हालतमे ही प्रकट करनेको मैंने आपको लिखा था जब कि आप १६१८ मे जो इस पंक्तिका नया रूप प्रकट हुआ है, उसे देखकर ठीक कर लें । अत आप इस वातका सशोधन प्रकट कर दें और आप जो जायसवालजीके अनुसार 'याप ज्ञापक' शब्दसे जैन साधुओको सवस्त्र प्रकट करते हैं सो ठीक नही, क्योकि 'याप ज्ञापक' शब्द - का अर्थ जैन साधु काल्पनिक हैं - किसी प्रमाणाधारपर अवलम्बित नही है ? किन्तु सम्पादक महोदयने इस सशोधनको प्रकट करने की कृपा नही कि । इसीसे प्रस्तुत लेख "दिगम्बरजैन" में भेजने को बाध्य हुआ हूँ ।"
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अब मैं अपने पाठको के सामने बाबू साहबके उन दोनो पत्रोको भी रख देना चाहता हूँ जो आपने अपने उक्त दोनो लेखोके साथ मे भेजे थे, और जिनकी तरफ आपने अपने उक्त आक्षेपमे इशारा किया है । और साथ ही, यह निवेदन किये