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उपासना-विपयक समाधान
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निमित्त पाकर या उसके सहारेसे उनका अनुभव किया है और इसीसे वे कथचित् भगवानके द्वारा उपदिष्ट कहलाती हैं। जैसे भगवान किसीको सुख-दु खके दाता नही, क्योकि वे किसीके लिये इच्छा-पूर्वक सुख-दुखका विधान नहीं करते, परन्तु उनके मिमित्तसे सुख-दु ख हो जाता है। एक मनुष्य भगवानकी स्तुति-भक्ति आदिके-द्वारा पुण्य उपार्जन करता है और परिणाममे उस पुण्यके फलसे सुखी होता है, दूसरा निन्दा-अवज्ञा आदिके-द्वारा पाप उपार्जन करता है और फलस्वरूप दुर्गतिका पात्र होकर दुखी होता है, और इसलिए यह भी कहा जाता है कि भगवान सुखदु खके दाता हैं।'
इसी तरह भगवानके निमित्तसे अथवा उनकी प्रवृत्ति आदिको देखकर जो उपदेश मिले उसे भी भगवानका उपदेश कहते हैं,
और यह सब कथन अनेक प्रकारकी नय-विवक्षाको लिये हुए होता है। परन्तु इस प्रकारके उपदेशमे उपदेष्टाकी ओरसे उपदिष्ट विषयके करने करानेकी कोई सीधी प्रेरणा न होनेसे वास्तवमे उसका देना नही किन्तु लेना होता है, और लेना ( आदान ) शिष्ट-व्यवहारमे प्राय दानपूर्वक हुआ करता है । इससे लेनेकी अपेक्षा उस उपदेशके देनेका भी व्यवहार किया जाता है। अत ३८ वे पद्यमे भगवानके उपदेशका जो प्रकार
१. भगवान् सुख-दुखके दाता हैं इसको पात्रकेसरीस्तोत्रमें यों सूचित किया है।
'ददास्यनुपम सुख स्तुतिपरेप्वतुष्यन्नपि, क्षिपस्यकुपितो च ध्रुवमसूयकान् दुर्गतौ । न चेश परमेष्टिता तव विरुध्यते यद्भवान् न कुप्यनि न तुप्यति प्रकृतिमाश्रितो मध्यमाम् ॥८॥