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उपासना-विषयक समाधान
दान-पूजनादि सवन्धी किसी विपयकी सम्पूर्ण क्रियाओका भिन्न-भिन्न रूपसे कोई उपदेश नही दिया । उनके द्वारा वैसे किसी विषयका उपदिष्ट होना 'कथचित्' रूपसे है ओर यह 'कथचित्' शब्दका प्रयोग वडा ही महत्त्व रखता है-खासकर इसकी महत्ता यहाँपर और भी बढ जाती है जबकि पहले पद्यमे निश्चितरूपसे यह कथन पाया जाता है कि भगवान सर्वज्ञने इन क्रियाओका उपदेश नही दिया, और इस पद्यमे यह कहा जाता है कि उन्होने कथचित् उपदेश दिया है । अत उपदेश देने और न देनेके विरोधको मेटने वाला यह 'कथचित्' शब्द अवश्य ही ध्यान दिए जानेके योग्य है— उसे यो ही उपेक्षाकी दृष्टिसे नही देखा जा जैसाकि शास्त्रीजीने और बडजात्याजीने' किया है। आप दोनो ही इस पद्यमे 'उपदेश दिया ( उपदिश्यतेस्म ) ' को देखते ही एकदम आपेसे बाहर हो गये हैं और इस बातको भुला बैठे हैं कि पहले पद्यमे विना 'कथचित्' शब्दका प्रयोग साथमे किये मुख्य तथा निश्चितरूपसे जो यह कथन किया गया है कि 'उपदेश नही दिया ( न देशिता ) उसका तब क्या बनेगा । इस भूल तथा उपेक्षाका ही यह परिणाम है जो शास्त्रीजी अपनी उस स्वत कल्पित शकाके उत्तरमे ३८ वे पद्यको अर्थ सहित देनेके बाद नतीजा निकालते हुए लिखते हैं
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"इससे स्पष्ट है कि पूजन- विधान आदि क्रियाएँ भगवानने
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१ बड़जात्याजीने तो यहाँ तक उपेक्षा धारण की कि उक्त पद्यके अनुवादमे भी 'कथचित्' शब्दका प्रयोग नही किया और न उसके इस आशयको ही सूचित किया कि भगवानने वह उपदेश किसी प्रकारविशेषसे दिया है - सर्वथा साक्षात् रूपमें नहीं - अर्थात् उसे किसी दृष्टि अथवा अपेक्षासे उनके द्वारा दिया हुआ समझना चाहिये ।