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उपासना-विषयक समाधान
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पडकर यहाँ तक संज्ञोहीन हुए हैं कि उन्होने अपने एक दूसरे लेखमे, जिसका हाल मुझे अभी मालूम हुआ है, लेखक-द्वारा पेश किए हुए उस पद्य ( न० ३७ ) को पूर्वपक्षका पद्य बतला दिया है।' अर्थात् यह सूचित किया है कि उस पद्य ( न० ३७ ) मे किसी आपत्तिकारकी आपत्तिका उल्लेख मात्र है और इसलिये किसी जैन-मतव्यकी पुष्टिमे उसे पेश न करके उमसे अगला पद्य ( न०३८) पेश करना चाहिये था, जो कि उत्तरपक्षका पद्य है । यह सब देखकर मुझे खास तौरपर शास्त्रीजीकी बुद्धि तथा समझपर वडा ही अफसोस होता है, क्योकि वस्तुस्थिति वैसी नही है जैसी कि उन्होंने समझी है, किन्तु उसमे विलकुल ही विलक्षण है, और उसका खुलासा इस प्रकार हैं -
मूल ग्रथकार श्रीपात्रकेसरी आचार्यने कुछ अजैन देवताओको आप्ताभास सिद्ध करने और उनकी सेवाको नरकका हेतु बतलानेके अनन्तर, ३६ वे पद्यमे यह प्रतिपादन किया है कि इन कृतकारितानुमतिरूपसे सदा हिंसादिकमे प्रवृत्त होनेवाले तथा हिमादिक दुष्टाचरणोके कथनादिकपर हर्ष मनानेवाले आप्ताभासोके ( उनकी ___ "इस श्लोकको मुख्तारजी क्यो देने लगे । न जाने मुख्तारजी इस श्लोकको क्यों छिपा गये अथवा उन्होने वस एक ही श्लोकका अध्ययन किया।
"महागय । इस तरहसे एक श्लोक देकर दसरा-मसरा वाली वात न किया कीजिये और न इस तरहसे अपने मनगढन्त तात्पर्यकी ही सिद्धि किया कीजिये।"
१. आप लिखते हैं-"श्रीविद्यानन्दस्वामीकृत पात्रकेसरीस्तवके आगेके श्लोकको छिपाकर पूर्वपक्षके श्लोकसे श्रीजिनमन्दिरपूजन आदिकी रचना जैनजगतमें कल्पित वतलाई गई-"
ख० जैनहितेच्छु वर्ष ७ अक ६ ।