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युगवीर - निवन्धावली
जिनेन्द्रके उपदेश-आदेश-भेदकी व्यर्थ कल्पना । बडजात्या
लिखते हैं
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(१) "हमारे भगवानने सब कुछ कहा पर आदेशरूपसे कुछ भी नही कहा – करो या न करो इससे उन्हे क्या अर्थ ?"
( २ ) " महाशय ? उन्होने यह करो, वह करो कुछ नहीं कहा, पर उनकी दिव्य-ध्वनिकी विशेषता थी । "
(३) "भगवान चाहे अच्छे या बुरे किसी भी कार्यके करने के लिए किसीको आज्ञा नही देते ।"
इससे साफ जाहिर है कि मोहनलालजी बडजात्या जिनेन्द्रके उपदेश-आदेशमे भेदकी भारी कल्पना करते हैं और आदेश अथवा आज्ञाकी जिनेन्द्रकी प्रवृत्ति ही नही मानते । परन्तु यह आपका कोरा भ्रम है । यदि भगवान् किसीको भी किसी प्रकारकी अच्छी या बुरी कोई आज्ञा ही नही देते - उनकी वास्तवमे कोई आज्ञा ही नही - तो फिर यह क्यो कहा जाता है कि "भगवानकी आज्ञा के विरुद्ध नही चलना चाहिए, अमुक कार्य भगवान्की आज्ञाके अनुकूल है, ऐसा करना भगवानकी आज्ञाका भग करना है, भगवानकी आज्ञाका लोप करना वडा पाप है, इत्यादि ?" अथवा श्रीवादिराजसूरिने अपने 'एकीभाव स्तोत्र' मे यह क्यों लिखा है कि - "आज्ञावश्यं तदपि भुवनं " - लोक भगवान्की आज्ञाके वशवर्ती हैं ? पात्रकेसरीस्त्रोत्रके टीकाकारने 'वश च' भुवनत्रय' पदोका अनुवाद " आज्ञाधीनं जगत्रयं" देकर यह क्यों कहा कि तीनो जगत भगवानकी आज्ञाके आधीन हैं ? और भगवज्जिनसेनाचार्यंने अपने 'जिनसहस्त्रनाम' मे भगवानको 'अमोघाज्ञ' लिखकर यह क्यो प्रतिपादन किया कि उनकी आज्ञा
".