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उपासना-विषयक समाधान
२५१ अमोघ होती है ? परन्तु इन्हे भी छोडिये, जैन शास्त्रोमे यह स्पष्ट लिखा है कि
सूक्ष्म जिनोदित तत्त्व हेतुभिर्नेव हन्यते।
आज्ञासिद्धू तु तद्ग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः॥ अर्थात्-जिनेन्द्रका कहा हुआ जो कोई भी सूक्ष्म तत्त्व है वह युक्तियोसे कभी खडित नहीं होता, उसे 'आज्ञासिद्ध' समझकर-अथवा यह खयाल करके कि भगवान्की ऐसी ही आज्ञा है—ग्रहण करना चाहिये, क्योकि जिनेन्द्र भगवान् अन्यथावादी नही होते । जव भगवान्की कोई आज्ञा ही नही तो यह 'आज्ञासिद्ध' कैसा ? और तव 'आज्ञासम्यक्त्व' भी कैसे बन सकेगा, जिसका स्वरूप 'आत्मानुशासन' मे श्रीगुणभद्राचार्यने निम्न प्रकारसे दिया है
आज्ञासम्यक्त्वमुक्त यदुत विरुचित वीतरागाज्ञयैव । इसमे साफ तौरपर 'वीतरागकी आज्ञासे ही जो रुचि अथवा श्रद्धान किया जाय उसे आज्ञासम्यक्त्व' लिखा है। यदि वीतराग भगवानकी कोई आज्ञा ही न हो फिर यह आज्ञासम्यक्त्वका कथन भी नही बन सकता। ___इसके सिवाय, धर्मध्यानके भेदोमे' 'आज्ञाविचय' नामका भी एक भेद है और उसका स्वरूप, ज्ञानार्णवमे, योगी श्रीशुभचन्द्राचार्यने निम्न प्रकारसे प्रतिपादन किया है
सर्वज्ञाज्ञां पुरस्कृत्य सम्यगर्यान्विचिन्तयेत् । यत्र तद्ध्यानमाम्नातमाशाख्य योगिपुगवै ॥ अर्थात्-जिस ध्यानमे सर्वज्ञकी आज्ञाको सामने रखकरउसे मानते हुए अथवा उसके आधारपर-पदार्थोंका सम्यक्विचार किया जाता है उसे योगीश्वरोने 'आज्ञाविचय' नामका धर्मध्यान