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उपासना-विषयक समाधान
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निर्माणकी कोई भी धार्मिक क्रिया श्रावकोकी भक्ति, रुचि तथा शक्ति आदिके अनुसार कल्पित नही होती, जैसा कि शास्त्रीजीका खयाल है।' और न यही कहा जा सकता है कि कोई अच्छी क्रिया महज इस वजहसे ही अधर्म हो जाती है कि उसे श्रावकोंने कल्पित ( निर्धारित) किया है अथवा भगवान्ने उसका उपदेश नही दिया। मालूम नही धर्म-अधर्मकी यह विलक्षण परिभापा शास्त्रीजीने किस आधारपर कल्पित की है ? हाँ, आपने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी "तेणुवइट्ठो धम्मो' इस गाथाकी ओर इशारा करते हुए, इतना जरूर लिखा है कि 'स्वामिकार्तिकेय' महाराजके इस वचनका यही अर्थ है कि भगवान् सर्वजने जो उपदेश दिया है वही धर्म है' । परन्तु यही अर्थ (1) तो दूर रहा, मुझे तो इस गाथा अथवा वचनका ? वैसा आशय भी मालूम नही होता । पाठक भी देखे, इसमे कहाँ लिखा है कि 'सर्वजने जो उपदेश दिया है वही धर्म है'--दूसरा कोई धर्म नही ? इसीसे
१ उपासनाके दूसरे अगोका भी प्रायः ऐसा ही हाल है । उदाहरणके तौरपर लीजिये, भगवान्ने यह कहाँ कहा कि तुम पाठ तो वोल्ना नाम ले-लेकर नाना प्रकारके सुगन्धित पुष्पोका और चढ़ाना रगे हुए पीले चावल ? पाठ तो बोलना ताजे-ताजे लड्डू, घेवर तथा फेनी आदि मिष्टान्नो या घृतमे तले हुए गौझा आदि पक्कानोका और चढाना गोलेकी छोटी-छोटी चिटके १ उच्चारण तो करना जगमग ज्योतिवाले दीपकोंका
और चढाना गोलेके रगे हुए तेजहीन टुकडे ? अथवा नाम तो लेना नारगी, दाडिम, आम तथा केले आदि हरे फलोका और चढाना सूखे वादाम या लोगें ? यह सव पूजन-विधान समय-समयकी जरूरतो तथा विचारों आदिके अनुसार श्रावको-द्वारा कल्पित नही तो और क्या है ? यहाँ मुझे इस विधानकी उपयोगिता या अनुपयोगितापर कुछ लिखनेका अवसर नहीं है वह फिर किसी समय विचार किये जाने के योग्य है ।