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उपासना-विषयक समाधान
२६३ 'पारलौकिक'। इनमेसे पहलेको लोकाश्रित और दूसरेको आगमाश्रित समझना चाहिये। ___ जव लौकिक धर्म आगमाश्रित नही है तव यह स्पष्ट है कि भगवान्के-द्वारा उपदिष्ट नहीं हुआ और इसलिये धर्म वही नही जो भगवान्के द्वारा उपदिष्ट हुआ हो, जैसा कि शास्त्रीजीका ख़याल है, बल्कि वह भी है जो भगवान्के-द्वारा उपदिष्ट न होकर लौकिक जनोकी देशकालानुसारिणी प्रवृत्ति अथवा निश्चितिके अधीन होता है। और उसकी प्रमाणतापर भी कोई आपत्ति नहीं की जा सकती, जव कि उससे जैनियोके सम्यक्त्वको हानि अथवा उनके व्रतोको कोई दूषण न पहुँचता हो' । पितापुत्रादिकके पारस्परिक तथा जनताके सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य, राजनीति, समाजनीति और विवाह-शादी आदिकी सव सामयिक व्यवस्थाएँ इस लौकिक धर्ममे शामिल है-विदेशी वस्त्रोका वहिष्कार जैसे सामयिक नियम भी इसी धर्मके आश्रित हैं। यह धर्म परिवर्तनशील है—सदा और सर्वत्र एक ही रूपमै नही रहता-और इतना विस्तीर्ण है कि इसके भेदोकी कोई गणना नहीं की जा सकती। खेद है शास्त्रीजीने इन सव वातोपर कुछ भी ध्यान नहीं दिया, और वैसे ही बिना सोचे समझे जो जीमे आया अटकलपच्चू लिख मारा || अपने 'शास्त्री' पदका भी कुछ खयाल नही किया |||
एक बात शास्त्रीजीने और भी विलक्षण लिखी है और वह यह है कि "श्रीजिनमन्दिर भगवान्की वाणीके अनुसार बनाये
१ 'सर्व एव हि जैनाना प्रमाण लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रतदूषणम् ॥'
-यशस्तिलक।