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युगवीर-निवन्धावली
भगवान् हेयाहेयविवेकसे विकल प्राणियोके लिये हितानुशासक है ' । तव वडजात्याजीका यह लिखना कि भगवान्ने "यह करो वह करो, कुछ नही कहा " और दर्प के साथ लेखकसे यह पूछना कि "कहिये और किन-किन बातोंके लिये भगवान्ने कहा है कि यह करना, वह करना ?" कहाँतक युक्तिसंगत है, इसे पाठक स्वय ही समझ सकते हैं । मुझे तो आपका यह सब कथन कोरा अशिक्षितालाप अथवा अशिक्षितोका-सा वचन व्यवहार जान पडता है और उसमे कुछ भी महत्त्व मालूम नही होता । इसीसे ऐसे लेखो के उत्तरमे मैं अपने समयका बहुत कुछ दुरुपयोग अथवा अपव्यय ( फिजूल खर्च ) समझता हूँ । आप लिखते हैं " करो या न करो इससे उन्हे ( भगवान्को ) क्या अर्थ ?” मैं पूछता हूँ 'करो या न करो' से यदि भगवान्का कुछ अर्थ अथवा प्रयोजन नही तो फिर उपदेश देनेसे ही उन्हे क्या प्रयोजन है ? क्या आत्मार्थके लिये - अपनी किसी निजी गर्जको सिद्ध करनेके लिये ही उपदेश दिया जाता है ? परार्थ अथवा परोपकारके लिये नही ? भगवान्का उपदेश तो अपने लिये नही किन्तु दूसरोके लिये उनके हित
१. यथा
"मोक्षमार्गमशिश्रयनरामरान्नापि शासनफलेपणातुर ॥" “श्रेयान् जिन. श्रेयसि वर्त्मनीमा श्रेय प्रजाः शासदजेयवाक्य. ।” "त्वया समादेशि सप्रयामदमाय. ।”
“त्व शमव सभवतर्षरोगे सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके । आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरुजां प्रशान्त्यै ॥ " “सर्वस्य तत्त्वस्य भवान्प्रमाता मातेव बालस्य हितानुशास्ता । गुणावलोकस्य जनस्य नेता
- इति स्वयभूस्तोत्रे समन्तभद्रवचनानि ।
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