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युगवीर-निवन्धावली
पूजा आदि सभी विषयोको' और इस आक्षेपके अनन्तर ही आप मुझसे पूछते हैं "तो फिर क्या आपका विचार हमारेमे ढूढया पथ चला देने से है ?" यह सब आक्षेप मुझे बडा ही विलक्षण मालूम होता है और इससे यह पाया जाता है कि बडजात्याजी मन्दिर-मूर्तिके निर्माण आदिको पूजा-उपासनाका कोई अग नही समझते हैं और न ढूँढया पथको ही जानते अथवा पहचानते हैं। यदि ऐसा न होता तो आप कदापि ऐसा ऊटपटॉग आक्षेप करनेका साहस न करते । मैं पूछता हूँ यदि चैत्य-चैत्यालयोके निर्माण को आप उपसनाका अग समझते हैं तो उपासनाके ढग विषयक लेखमे उसका विचार होना स्वाभाविक था, उसपर आपकी फिर आपत्ति कैसी? और यदि वैसा नही समझते हैं तो क्या फिर आपकी यह कोरी शास्त्रानभिज्ञता नही है ? क्योकि आदिपुराणमे भगवज्जिनसेनाचार्यने साफ तौरपर चैत्य-चैत्यालयादिके निर्माण
और उनके लिये प्रामादिकके दान तकको 'नित्य पूजन' वर्णन किया है । यथा -
चैत्य-चैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापण च यत् । शासनीकृत्य दान च ग्रामादीना सदाऽर्चनम् ।।
और इसी तरहका कथन सागारधर्मामृत आदि दूसरे ग्रन्थोमे भी पाया जाता है । इसी तरह मैं यह भी पूछना चाहता हूँ कि ढूंढिया मतके कौन-से ग्रन्थमे यह लिखा है कि दान-पूजाका करना उनके यहाँ निषिद्ध है अथवा वे लोग दान-पूजा नही करते ? क्या केवल मूर्तिके सामने खडे होकर अथवा बैठकर दीप-धूप
स्तोत्रवाले एक पद्यके अनुवादमें उन दोनोंके उपदेशका विधान किया है वह उनका एक अप्रासगिक कथन अथवा व्यर्थकी छेड-छाड है। और इस तरहपर वे खुद ही अपनी आपत्तिके शिकार बन जाते हैं ।