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जयजिनेन्द्र, जुहारु, इच्छाकार
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नही होता कि वह जिनेन्द्रका कुछ हित चाहता है या उनकी किसी अधूरी जयको पूरा करनेकी भावना करता है । जिनेन्द्र भगवान तो स्वय कृतकृत्य है, विजयी और जयवन्त हैं, वे अपने सपूर्ण कर्मशत्रुओको जीत चुके, उनका कोई शत्रु नही और न विश्वभरमे उन्हे कुछ जीतना या करना बाकी रहा है, वे रागद्वेषसे बिलकुल रहित हैं और यह भी इच्छा नही रखते कि कोई उनका जयघोप करे, फिर भी उनका जो जयघोप किया जाता है वह दूसरे ही सदाशयको लिये हुए है और उसके द्वारा जयघोप करने वाला वह भाई, व्यक्त अथवा अव्यक्त रूपसे यह सूचित करता है कि तुम्हारे, मेरे अथवा विश्वभरके हृदयमे जिनेन्द्र व्याप्त हो जायँ, उनके निर्मल गुण हमारे अन्त करणको जीत लेवे, सवोपर उनका प्रभाव अकित हो जाय अथवा सिक्का वैठ जाय, और इस तरह सव लोग जिनेन्द्रके गुणोमे अनुरक्त होकर अपना आत्मकल्याण करने और अपने जीवन-मार्गको सुगम तथा प्रशस्त वनानेमे समर्थ हो जायं । इससे 'जयजिनेन्द्र' में कितना सुन्दर भाव भरा है, कितनी उच्च कोटिका उत्तम भावना सनिहित है और कैसी ललित विश्व-प्रेमकी धारा उसमेसे बह रही है, इसे पाठक स्वय समझ सकते हैं। ऐसी हालतमे क्या जयजिनेन्द्रका पारस्परिक व्यवहार उत्थापन किये जाने अथवा उठा देनेके योग्य हो सकता है ? कदापि नहीं। मुझे तो सच्चे हृदयसे उच्चारित होनेपर यह अपनी तथा दूसरोकी शुद्धिका प्यारा मत्र मालूम होता है और इसीलिये सवोंके द्वारा अच्छी तरहसे आराधन किये जानेके योग्य जान पडता है।
वास्तवमे जयघोप करना जैनियोकी प्रकृतिमे दाखिल है। उनका जन्म ही जयके लिये हुआ है, उनकी जन्मघुटीमे जयका