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युगवीर-निवन्धावली और 'श्राद्धा' पदके समकक्ष है। इससे श्रावकगण सज्जनवर्गको जुहारु करे, यह अर्थ नही बनता बल्कि सज्जनजन परस्परमे जुहारु करे, ऐसा अर्थ निकलता है। परन्तु श्रावकजनोसे भिन्न दूसरे वे सज्जन-जन कौन-से हैं जिनके लिये परस्परमे जुहारुका यह पृथक् विधान किया गया है, यह बात कुछ समझमे नही आती और न इससे श्रावकोमे परस्पर या दूसरोके प्रति जुहारुकी बात ही कायम रहती है। अत इस पद्यको हालत सदिग्ध है और वह प्रकृत विषयका समर्थन करनेके लिये समर्थ नही हो सकता।
रहे शेष दो पद्य, उनकी हालत और भी ज्यादा खराब है। वे किसी ग्रन्थ-विशेषके पद्य भी मालूम नही होते, बल्कि 'जुहारु' की सार्थकता सिद्ध करनेके लिये किसी अनाडीके-द्वारा खडरूपमे गढे गये जान पड़ते हैं। इसीसे उनके शब्द-अर्थका सम्बन्ध कुछ ठीक नही बैठता-कहाँ 'जुगादि', कहाँ 'ऋषभं देवं हारिणं' ये द्वितीयाके एकवचनान्त पद, कहाँ 'रक्षन्ति' बहुवचनान्त क्रिया और कहाँ 'जहारः उच्यते' पदोकी 'जुहाररुच्यते' यह विचित्र सृष्टि ( सधि )| व्याकरणकी रीतिसे इन सबकी परस्पर कोई सगति नही बैठती। इसी तरह गाथाके 'जुहारो जिणवरो मणीयम्' और 'धम्म गहियं' पद भी दूषित जान पड़ते हैं। और इसलिये 'जुहारु' शब्दकी जिस निरुक्ति-कल्पनाके लिये इन पद्योकी रचना हुई है उसकी भी इनसे यथेष्ट रूपमे कोई सिद्धि नही होती। बाकी जुहारुके परस्पर व्यवहारका इनमे कोई विधान नही, यह स्पष्ट ही है। यदि ये दोनो पद्य किसी ग्रन्थ-विशेषके होते और उसमे जुहारुका विधान किया गया होता तो भट्टारकजी उन पद्योको भी जरूर साथमे उद्धृत करते। इससे भी ये