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युगवीर-निवन्धावली उत्कृष्ट-श्रावक, जिनके आशाधरजीने 'एकभिक्षानियम', 'अनेकभिक्षानियम' और 'आर्य' ऐसे नाम दिये हैं ? प्रकरणको देखते तथा उक्त आचार्य-वाक्योकी रोशनीमे इस पद्यके उत्तरार्धको पढते हुए यह मालूम होता है कि 'सर्वे' पदका वाच्य ११वी प्रतिमा-धारक उत्कृष्ट-श्रावक-समूह होना चाहिये । परन्तु आशाधरजीने इस ग्रन्थपर स्वय टीका भी लिखी है और इसलिये उन्होने इस पदका जो अर्थ दिया हो वही मान्य हो सकता है । माणिकचन्द्रग्रन्थमालामे वह टीका जिस रूपसे मुद्रित हुई है उसमें इस पदका अर्थ । 'एकादशाऽपि श्रावका ' दिया है—अर्थात्, ग्यारह प्रतिमाओके धारक श्रावकोको 'सर्वे' पदका वाच्य ठहराया है। हो सकता है कि यह पाठ कुछ अशुद्ध हो और 'एकादशमस्थाः' आदि ऐसे ही किसी पाठकी जगह लिख गया अथवा छप गया हो, जिसका अर्थ ग्यारह प्रतिमा न होकर ग्यारहवी प्रतिमा होता हो। परन्तु यदि यही पाठ ठीक है
और प० आशाधरजीने अपने पदका ऐसा ही अर्थ किया है तो कहना होगा कि प० आशाधरजीने प्रतिमाधारी सभी नैष्ठिक श्रावकोके लिये परस्पर इच्छाकारका विधान किया है और उनके इस कथनसे एक क्षुल्लक तथा ऐलकको भी प्रथम प्रतिमाधारी श्रावकोके लिए परस्पर इच्छाकारका विधान किया है और उनके इस कथनसे एक क्षुल्लक तथा ऐलकको भी प्रथम प्रतिमाधारी श्रावकको 'इच्छामि' कहना चाहिये । ऐसी हालतमे आपका यह विधान कौन-से आचार्य-वाक्यके अनुसार है यह कुछ मालूम नही होता। परन्तु वह किसी आचार्य-वाक्यके अनुसार हो या-न-हो, इसमे सन्देह नही कि आपका यह विधान नैष्ठिक (प्रतिमाधारी) श्रावकोंके लिये है-अव्रती आदि साधारण