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युगवीर-निवन्धावली
भावपूर्ण बढिया साहित्य भी लिखा जा सकता है और जिन पूजापाठोको बिना समझे-बूझे और बिना परमात्मामे अनुराग बढाए अशुद्धरूपसे महज जाब्तापूरीके तौरपर अनाप-सनाप उच्चारण किया जाता है उन्हीको उनका अर्थ समझते और परमात्माके गुणोमे अनुराग बढाते हुए शुद्धरूपसे गाजे-बाजेके साथ भी उच्चारण किया जा सकता है-गाना, बजाना उसमे कोई खास तौरपर कोई बाधक नही हो सकता, बशर्ते कि पूजकका ध्यान परमात्माके गुणोमे अनुराग बढानेकी ओर विशेष हो और इसलिये लेखकका उक्त लिखना पूजा-साहित्यको ऊँचा उठाने तथा पूजकोकी वर्तमान प्रवृत्तिमे सत्सुधारको प्रतिष्ठित कराकर उन्हे सच्चा पूजक बनानेकी सत्कामनाको लिये हुए है। परन्तु बडजात्याजीकी समझ विलक्षण है । आप उक्त लिखनेको “पूजाके समय गायन वादित्र आदिपर तथा पूजनके छद, कविता आदिपर आक्षेप' समझते हैं । और फिर इस स्वत कल्पित आक्षेप अथवा निषेधका इस तरहपर निराकरण करते हैं कि छंद आदिकी बात तो रुचिके अनुसार होती है उसमे क्या दोष आता है ? सस्कृतमे भी तो भॉति-भॉतिके श्लोक है, और इसी तरह गीत-वादित्र होनेमे भी कोई दोष नही आता ।' साथ ही, गीतवादित्रके समर्थनमे 'त्रिलोकसार'की एक गाथा (दिव्वफलपुप्फहत्या) और 'सिद्धान्तसार'के कुछ प्रलोक ( 'अभिषेकमह' आदि ) भी पेश करते हैं, जिनमे देवताओ-द्वारा भगवान्के अभिषेक-पूजनका कुछ वर्णन है । यह सब देखकर मुझे बडजात्याजीकी बुद्धिपर बडा ही आश्चर्य होता है । मैं पूछता हूँ इन सब श्लोकोमे यह कहाँ लिखा है कि वह गाना-बजाना बिना अर्थावबोधके और बिना परमात्माके गुणोमे अनुराग बढाए होता था अथवा देवतालोग अनाप-सनाप